ले चल पार
रचना नंबर (१)
शीर्षक,,,*ले चल पार*
ओ मेरे मांझी ! जग मझधार
ले चल मुझको बस इक बार
परमात्मा प्रिय बसे उस पार
उधर झूमे खुशियाँ अपरम्पार
इधर दुख-दर्दों की है भरमार
इस सागर में हैं तूफां आंधी
हजार मुश्किलें व आपाधापी
तू ही खिवैया , तू पार लगैया
मोह-माया बंधनों को दे विराम
अब जाना मुझको अपने धाम
कश्ती पुरानी, पतवारें भी टूटी
पर लगन प्रभु से है मेरी अनूठी
हे मांझी गुरु बस तेरा ही सहारा
बिन तेरे मेरा कहीं नहीं गुजारा
लागे पराया अब यह जग सारा
बिन गुरु ज्ञान मिले न साथी
ज्यों अर्जुन के कृष्ण सारथी
एकलव्य ने बनाई गुरु मूर्ति
जरा राह दिखा दो हे भगवन
जाए कौन दिशा में अब हम
वो तो है फरिश्तों की नगरी
मोह माया की छोड़ के गठरी
सुकर्मों का बस लेखा जोखा
कर जाएं हम यहाँ कर्म चोखा
कभी न दें विधाता को धोखा
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर