लेंगे लेंगे अधिकार हमारे
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जंगल अपना, ज़मीन अपनी
पर न कोई कागज़, न ही टपरी
सरकार बदली, क़ायदा बदला
आदिवासी का हक़ भी बदला
तुम्हारी ये नव नियम कुंडली
हमसे क्यूँ ये ज़मीं छीन ली?
अरे! तीन पुश्तों की बात करते हो
सदियों पुरानी कब्र दबा ली
ये कैसी सरकार हमारी?
अधिकार दिया पर ज़ुबां छीन ली
ग्राम सभा कहे हम मूल निवासी
फिर कहे न माने अधिकारी
प्रशासन ने आँख मूँद ली
वनाधिकारी यूँ करे राजसी
आधुनिक कहलाने वालों
अब तो मन का वहम् निकालो
आँखों के पट खोल के देखो
ये बची हुयी थोड़ी हरियाली
जंगल है तो जीवन भैया
नहीं तो कलपुर्जों की काली
पावन नीर बयार यहाँ है
तेरे शहर तो गन्दी नाली
गौरे गए अब भूरे आये
प्रकृति विरोधी सब ये शासी
ये भेद भाव का चाल चलन क्यूँ
सब जानत है चाल तुम्हारी
जंगल के रखवाले को क्यूँ
चोर बनावे माया पुजारी
अब जानेंगे हक़ हम सारे
लेंगे लेंगे अधिकार हमारे
जंगल ज़मीं है अनमोल जान ले
विकास नाम पर चोर लुटेरे
क्यूँ आते जाते पुलिस ये तेरे
हमरे घर यूँ धौंस ज़माते
बोलेंगे हम मुंह खोलेंगे अब
क्यूँ तोड़े यूँ छप्पर जब तब
जनतंत्र का मक़सद क्या है?
थानेदार का डाँग बजाना
या नेताजी का दारु बांटना
या पानी में ज़हर मिलाना
या फिर जनता को धमकाना?
बिन पट्टे की टपरी तोड़ी
बिन कागज़, मनुज पत्थर की ढेरी
बरसों से हम ये ज़मीन जोतते
फिर भी हम क्यूँ बिन घर के?
अब जाने हैं हक़ हम सारे
लेंगे लेंगे अधिकार हमारे!!
©️ रचना ‘मोहिनी’