लक्ष्य फिर अनंत है
लक्ष्य फिर अनंत है ………
——–+++++++++++++++++
भ्रम की परिणति अनिश्चित पंथ है
एक दृढ़ निर्णय और लक्ष्य फिर अनंत है ।
बड़े बड़े सृजन यहां, प्रेरणा ने रचे गढ़े
परिणाम उन यत्नों के , प्रशस्ति में तब मढ़े ।
रत्नावली के कठोर दो शब्द , महाग्रंथ का निर्माण
विद्योत्मा की एक झिड़की, साहित्य का उत्कृष्ट प्रमाण ।
शक्तियों के योगदान, परमार्थ के निमित्त है
श्रेय से अलिप्त रहे , निस्वार्थ चरित्र है ।
दीये के प्रकाश को सदैव मिला सम्मान है
त्याग घृत कपास का किंतु, अनदेखा अनजान है ।
प्रस्तुत सम्मुख जो हुए, सभी अवतार बन गए
गूढ़ मूल स्रोत अदृश्य, गौण मूक विचार बन गए।
जो चमक रहा वो सत्य है , यह चलन भी अजीब है
अदृश्य मूल उपेक्षित रहे , ये भी क्या तहजीब है ?
अहिल्या, द्रौपदी , सीता, तारा, मंदोदरी तथा
प्रातः स्मरण के श्लोक में, बंधक बस एक कथा ।
सचमुच कहां इस जगत में, आदि शक्ति का मान है ?
शोषण और निरंतर दोहन , तिरस्कार अपमान है ।
ऊर्जा की यह सतत उपेक्षा , किस मुकाम पर ले जायेगी
परंपरा अनवरत शोषण की, कब तलक सर उठाएगी?
अहंकार बल के दंभ में , क्यों हो रहा है नित नया प्रतारण
नदी, हवा, निर्भया शक्ति का, होने दो अवतरण अनावरण ।
यज्ञ की धूली में दबी छुपी, सुप्त अग्नि ज्वलंत है
स्नेह की फूंक तो मारो , परिणाम भी अनंत है ।
लक्ष्य फिर अनंत है ………….
रचयिता
शेखर देशमुख
J 1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू 2, सेक्टर 78
नोएडा (UP)