रोला छंद
रोला
निर्धन बेघरबार, सड़क पर भूखा सोता।
खाता है दुत्कार, क्षुधा से पीड़ित रोता।।
बेबस ये लाचार, जेब है इसकी खाली।
महँगाई की मार, मने कैसे दीवाली?
कर सौलह शृंगार, लगाए मस्तक टीका।
करे भ्रात सत्कार, बहन बिन उत्सव फीका।।
जब तक है संसार, लुटाऊँ प्रीत निराली।
भैया-भाभी द्वार, सदा छाए खुशहाली।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)