रोना याद आया – डी के निवातिया
रोते हुए देखा पड़ोसी को तो रोना याद आया,
जब भूख लगी, तब फ़सल बोना याद आया !
सोया था पैर पसार कर, बड़े ही इत्मीनान से,
बिटिया हुई सयानी यकायक गौना याद आया !
दूसरों के घरों में आग लगी जब हम तापते रहे,
घर अपना जलने लगा तो संजोना याद आया !
बिखरते रहे टूटकर मोती अनगिनत मालाओं से,
टूटी अपनी माला, तो, मोती पिरोना याद आया !
दूजे के दुःख पर हँसना इंसानी फ़ितरत पुरानी है,
टीस खुद को उठी तो हकीम का कोना याद आया !
उजड़ रही थी दुनियाँ, वो लगे थे कुर्सी बचाने में,
टूटी सत्ता की नींद तो उनको कोरोना याद आया !
कितने कितनों को लील गया महिषासुर कोरोना,
बारी अपनी आयी तो अपनों का खोना याद आया !
पहले खोजता रहा खामियां सबको गिनाता रहा,
देखा जो आईना, चेहरा अपना धोना याद आया !!
तुझे तो खबर थी “धर्म” नाश तेरा हर हाल होगा,
वक्त था जागने जगाने का तभी सोना याद आया!
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डी के निवातिया