*रिश्तों में दरारें*
रिश्तों में दरारें
रिश्तों में पल-पल दरारें पड़ते देखा है।
गरज बदलते ही रंग बदलते देखा है।
सच को झूठ और झूठ को सच
करने का हर ढंग बदलते देखा है।
वक्त बेवक्त अपनों को,
किनारा करते देखा है।
तिल का ताड़ और राई का पहाड़
करते अपनों को ही देखा है।
चेहरों पर कुटिल मुस्कान रखकर,
षड्यंत्र के जाल बुनते देखा है।
अपनों के हाथों अपनों को
छल करते देखा है।
पीड़ा सहते हुए मन के भाव को
दिन ब दिन फलते-फूलते देखा है
बुरी नजर और तन की जलन में
खुद को जलाते हुए उनको देखा है।
तन है गोरा मन है काला,
स्वार्थ सिद्ध होने से बने हैं मालामाल
हर आंखें शिकवे गिले से है लबालब
इंसानियत का अब कहां है कोई महल
संवेदना की मृत्यु होते देखा है।
इस तन को कब्रिस्तान बनते देखा है।
छल, कपट, झूठ, फरेब
सबकी तिजोरी का गहना है।
कलयुगी मानव ने कहां
सुना किसी का कहना है।
रचनाकार
कृष्णामानसी
मंजू लता मेरसा
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)