रात स्वप्न में दादी आई।
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कभी न दादी को है देखा।
ऐसी क्यों किस्मत की रेखा।
मगर स्वप्न में मिलने आती-
आज लिखूँ मैं उसकी लेखा।
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श्वेत सुनहरी साड़ी पहने, रात स्वप्न में दादी आई|
चूम-चूम कर माथा मेरा, मुझसे कितना लाड-लडाई|
अधरों पर मुस्कान लिए थी, गालों पर छायी थी लाली|
माथे पर साटे थी बिंदी, झूल रही कानों में बाली|
स्वप्न लोक से आई जैसे, सुंदर सी कोई शहजादी|
मैने पूछा आप कौन हैं,हँसकर बोली “तेरी दादी”|
आँचल को लहरा कर अपने, मधुकर गीत सुरीली गाई|
श्वेत सुनहरी साड़ी पहने, रात स्वप्न में दादी आई|
जादू की झप्पी देकर वो, बोली चुप कर गुड़िया रानी|
साथ सदा मैं रहती तेरे, आँखों से क्यों बरसे पानी|
तू मेरे अखियों की तारा, निडर सदा तुम आगे बढ़ना|
कठिन परिश्रम से तुम गुड़िया, सच्चाई की सीढी़ चढ़ना|
गोद बिठाकर मुझसे बोली,देखो रबड़ी हूँ मैं लाई|
श्वेत सुनहरी साड़ी पहने, रात स्वप्न में दादी आई|
रबड़ी खाकर के खुश होकर, ढेरों करती उन से बातें|
कही कहानी बीते पल की, गुज़र गई जो हँसती रातें|
परी लोक की सुंदर-सुंदर, मुझे सुनाई कितनी गाथा|
तभी अचानक चली गई वो, सहलाकर के मेरा माथा|
आँख खुली वो सपना टूटा, मिली नहीं उनकी परछाई|
श्वेत सुनहरी साड़ी पहने, रात स्वप्न में दादी आई|
मैं दादी की फोटो लेकर, सुबक- सुबक कर कितना रोई|
मम्मी की गोदी में जाकर, उनकी बातों में मैं खोई|
मैने दादी माँ को देखा, या देखा था उनका साया|
मगर खुशी से भरी हुई थी, स्वप्न लोक की अद्भुत माया|
काश स्वप्न की बातें सारी, बन जाती मेरी सच्चाई|
श्वेत सुनहरी साड़ी पहने, रात स्वप्न में दादी आई|
वेधा सिंह