रग रग में रब्ब समाए
***रग रग में रब्ब समाए***
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कभी मन्दिर में रब्ब न मिले,
कभी मयखाने में मिल जाए।
दर दर पर भटकता मानव यूँ,
ईश मन मे सदा से है समाए।
चिर निद्रा में सोता है रहता,
गहरी नींद से कौन जगाए।
रग रग में खुदा का हो वास,
चंचल मन को कैसे समझाए,
मोह , लोभ में डूबा है रहता,
रोज मानवीय स्तर है गिराए।
रोम रोम में है ईश्वरीय प्रवेश,
क्यों घर पर पैर न टिक पाए।
मनसीरत माँ बाप रब्बतुल्य,
क्यों फिर तीर्थ गंगा नहाए।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)