ये पीढ कैसी ;
ये पीढ कैसी ये प्रीत कैसी, ये रीत कैसी ये प्रीत कैसी
शूल चुभाए पवन ये कैसी, सुलगे हृदय में ये अगन कैसी ।।
हे री सखी कह; ये राह कैसी, जिय में उठी ये आह कैसी
धधकती हृदय में ये ज्वाल कैसी, तेरी छुअन सजी सेज जैसी ।।
सम्मुख हैं प्रीतम युगन दूर जैसी, अंग-अंग जलाए ये तपन कैसी
मिलन मीत वेला है सत्य तो क्यों, लगे सभी कुछ इक स्वप्न जैसी ।।
लाज स्वयं आज दर्पण को आवे, अपने अधर में लिपटन हो जैसी
झुक कर के दृष्टि ,उलझी है ऐसे, पलक हो दूजी पलकन में जैसी ।।
दिन में छिपूं नजर से मैं उनकी, रात भई कारी बैरन के जैसी
चाहूँ मिलन को अनंत मिलन तक, है आस मेरे मन को ये कैसी ।।
झुलस रहा तन विरह अगन में, सावन में लगी ये आग कैसी
युगों की क्षुधा मिटाओ चिर तक , हृदय में धड़के धड़कन ये कैसी ।।
रुक जाए समय अब कर ले प्रतीक्षा,अनंत सुधा ये पल भर के जैसी
यही प्रीत रीती है युगो युगों से, जोलगन मिलन की लग जाए ऐसी ।।