ये चिल्ले जाड़े के दिन / MUSAFIR BAITHA
स्कूली दिनों की लिखी मेरी यह कविता :
ये चिल्ले जाड़े के दिन
ये चिल्ले जाड़े के दिन
उफ़्फ़! कितनी सर्दी
शीतलहरी के दिन
निकलो तो जरा गरम कपड़ों के बिन
ये चिल्ले जाड़े के दिन
मार्तंड बादलों से है हारा
धूप का न नामोनिशान
रात तो है रात
दिनभर लगती है धुन
ये चिल्ले जाड़े के दिन
कोई कोट डाले कोई स्वेटर पहने
कोई ओढ़े हुए है कम्बल रजाई
आज सर्दी की तो आई है बहार
गर्मी जैसे हो ठिठुरी सकुची शरमाई
बेबस बेचारों के हैं ये दुर्दिन
ये चिल्ले जाड़े के दिन
आखिर कितने दिन चलेगी
इस महाशय जाड़े की
एक दिन सूरज उसे पछाड़ेगा
जब निकलेगा सूरज दुम दबा कर भागेगा जाड़ा
कहीं दूसरी जगह जा लेगा किनारा
हो जाएगा वह उड़नछू
फिर बहुरेगी धरा पर ज्योति किरण
ये चिल्ले जाड़े के दिन