ये आकांक्षाओं की श्रृंखला।
ये आकांक्षाओं की श्रृंखला, जीवन को भ्रम में उलझाती है,
होठों की हंसीं चुराकर, आँखों में अश्रु भर जाती है।
पथ की ओर अग्रसर पथिक, की राह को धुंधलाती है,
मंजिलों की छवि दिखाकर, नए मोड़ों में भटकाती है।
बादलों का आवरण छाता है, पर बारिश आँखें चुराती है,
मृगतृष्णा में भटक रहे मृग को, उसकी नाभि छल जाती है।
दीपक की वो लौ जो, अंधेरों में रौशनी दिखाती है,
कतरा-कतरा कर अपनी बाती को हीं, ये भी राख बनाती है।
एक पूरी होती नहीं, ये नए सपनों के अम्बार लगाती है,
इस दौड़ में जीवन कब कट जाए, इस एहसास को भी ये सुलाती है।
डूबती-उतरती साँसों को, नयी कश्ती से ये मिलवाती है,
नए तटों की राह दिखाकर, किनारों पर नाव डुबाती है।
चाहत की बंद खिड़कियों से, भविष्य के घर को सामने लाती है,
फिर एक क्षण में रेत बना, उस घर को लहरों के हवाले कर आती है।
गिरते-गिराते हर दौड़ का धावक, ये हमें बनाती है,
अनुभवों से झोली भरती है, और यही सीख दुनिया में जीना सिखाती है।