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9 Feb 2018 · 1 min read

ये’जीवन यूँ ग़ुजरता है, नशा जैसे उतरता है ।

ये’जीवन यूँ ग़ुजरता है, नशा जैसे उतरता है ।
हमारा हुस्न अब हमसे,सँवारे ना सँवरता है ।

नशीली आँख का जादू, रसीले होंठ बेक़ाबू,
पड़े ख़ाली हैं’ पैमाने,भरे से अब न भरता है ।

ज़रूरत अब नहीं आती, नक़ाबों की हिज़ाबों की,
न कोई अब रहे घायल, न कोई अब यूँ’ मरता है ।

कभी क़ीमत रही जिनकी, झलक मिल जाए’ कब उनकी,
तरसते थे जो’ दीवाने, न अब कोई तरसता है ।

बड़े दीदार करते थे, बरसते नोट रहते थे,
पड़े ‘अंजान’ कोने में, ख़बर कोई न करता है ।

दीपक चौबे ‘अंजान’

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