ये’जीवन यूँ ग़ुजरता है, नशा जैसे उतरता है ।
ये’जीवन यूँ ग़ुजरता है, नशा जैसे उतरता है ।
हमारा हुस्न अब हमसे,सँवारे ना सँवरता है ।
नशीली आँख का जादू, रसीले होंठ बेक़ाबू,
पड़े ख़ाली हैं’ पैमाने,भरे से अब न भरता है ।
ज़रूरत अब नहीं आती, नक़ाबों की हिज़ाबों की,
न कोई अब रहे घायल, न कोई अब यूँ’ मरता है ।
कभी क़ीमत रही जिनकी, झलक मिल जाए’ कब उनकी,
तरसते थे जो’ दीवाने, न अब कोई तरसता है ।
बड़े दीदार करते थे, बरसते नोट रहते थे,
पड़े ‘अंजान’ कोने में, ख़बर कोई न करता है ।
दीपक चौबे ‘अंजान’