…याद है
अपनी गलती मान कर मुझ को मनाना याद है
मान जाऊँ मैं तो तेरा रूठ जाना याद है
हाथ थामे चाँदनी में चलते जाना याद है
तुम बताओ क्या तुम्हें गुज़रा ज़माना याद है
इक झलक के वास्ते चिलमन पे आँखें गाड़ना
करवटों में जागकर रातें बिताना याद है
दिल की हालत को छुपाना जब कभी मुमकिन न हो
भीड़ में लोगों से तब नजरें चुराना याद है
पत्तियों की सरसराहट में तेरी आहट लगे
फिर गली तक बेतहाशा दौड़ जाना याद है
दिल ही दिल में मैं भी रोया पर किसी ने कब सुना
और तेरा रोकर ज़माने को रुलाना याद है
लब से कुछ बोले बिना ही राज़ दिल का खोलना
चुपके चुपके देख मुझको मुस्कुराना याद है
बात करना दूर रहकर तब ‘शिखा’ आसाँ न था
चिट्ठियों में हाल-ए-दिल पढ़ना पढ़ाना याद है
©पल्लवी मिश्रा ‘शिखा’, दिल्ली।