“म्युनिसिपालिटी”
क्या ख़ूब कहा है भारतेंदु ने:
‘यही तिहवार ही तुम्हारी म्युनिसिपालिटी है।’
कल त्योहार है। मैं देख रहा हूँ, जहाँ-जहाँ तक मेरी नज़र जा रही है, सड़कें साफ़ सुथरी हैं, कूढ़े-करकट का कहीं नाम-ओ-निशान नहीं है, दीवारें-दुकानें पुती हुई और सजी हुई हैं। आम दिनों में हालात ऐसे नहीं होते। चलो यही एक बहाना सही, कुछ काम तो हुए। सड़क के दोनों किनारों पर खिंची चूने की समानांतर लकीरें अनंत से अनंत को जाती मालूम हो रही हैं। ऐसे मौक़ों पर म्युनसिपालिटी वाले भी हरकत में आ जाते हैं। जगह-जगह उन की गाड़ियाँ घूमती मिलती हैं। उन्हें हुक्म जारी होते हैं। ज़रा भी कहीं गंदगी बाक़ी न रहे। कोना-कोना चमक जाना चाहिए।
बाज़ार में अच्छी-ख़ासी चहल-पहल है। चमकते चेहरे वाले ग्राहकों से दुकानें गुलज़ार हैं। सामने वो मिठाई-वाला, उस की दुकान से मिठाई के डिब्बे, नज़र न लगे, ऐसे निकल रहे हैं जैसे किसी फ़ैक्टरी से माल की सप्लाई जाती है। टेलर मास्टर की दुकान पर लोगों का ताँता लगा है। सब को अपने कपड़े लेने की जल्दी है। मास्टर साहब पशोपेश में हैं, इसे देखें कि उस की सुनें। जूतों की दुकान पर एक से एक नए रंग और डिज़ाइन का जूता-सैंडल-चप्पल मौजूद है। ग्राहक एक-एक जूता पहन-उतार कर देख रहे हैं कि कौन सा ज़्यादा फबता है और कौन सा कम। कल दुनिया इन्हीं पर चलेगी। फेरी वालों की लाटरी लग गयी है। कोई कुछ बेचता फिर रहा है, कोई कुछ। मैं ही कौन सा फ़ुर्सत से बैठा हूँ, दिमाग़ के साथ-साथ हाथ-पैर भी मशीन की तरह चल रहे हैं।
ये जो दो बूढ़े आदमी एक-दूसरे की बग़ल से बग़ल मिलाए हँसते-बोलते जा रहे हैं, मैं इन्हें ख़ूब पहचानता हूँ। कुछ दिन पहले ऐसे झगड़ रहे थे कि जैसे एक-दूसरे का ख़ून पी जाएँगे। मगर आज देखो, त्योहार आते ही कैसा एका कर लिया।
उस तरफ़ वो जो भीख माँगने वाली बच्ची एक औरत के साथ हाथ फैलाए बैठी है, वो भी तो आज अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पा रही है, ज़रा ज़रा देर में दाँत बाहर निकल आते हैं। सिक्कों-नोटों से दामन छलका जाता है। ख़ुशी हो तो ऐसी, जो छिपाए न छिपे। फिर बालक मन का क्या कहिए, राजा का हो या रंक का, बच्चा होता तो आख़िर बच्चा ही है।
अरे देखो तो सही बढ़िया जींस-टी शर्ट पहने उस बच्चे को, जो एक गिफ़्ट पैक ले कर अपनी माँ के साथ आया है और उस माँगने वाली बच्ची को दे रहा है। वो बच्चा तो अक्सर यहाँ से गुज़रता है, स्कूल की ड्रेस पहने। और मैं ने कई बार देखा है उस बच्चे को उस माँगने वाली बच्ची को देख कर हिक़ारत भरी हँसी हँसते हुए। आज देखो, कैसे प्यार से उसे उपहार देने आया है। त्योहारों का इंसान पर क्या असर होता है, किसी को देखना हो तो ये देखे।
अब वो लड़का जा चुका है। उस माँगने वाली बच्ची की माँ इधर-उधर कहीं गयी है। मौक़ा पा कर बच्ची मेरी दुकान की तरफ़ आती दिखाई दे रही है। अक्सर मैं देखता हूँ कि उस की नज़र मेरी दुकान में रखी रंग-बिरंगी टौफ़ियों के मर्तबानों पर होती है। कभी-कभार अपनी माँ की नज़रों से बच-बचा कर वो मेरी दुकान पर आ भी जाती है। एक-आध रुपए की टौफ़ियाँ ले जाती है। मैं, रोज़ी कमाने बैठा हूँ, झूठ नहीं बोलूँगा, उस के साथ ज़रा भी मुरव्वत नहीं करता। एक रुपए की एक टौफ़ी आती है, एक ही देता हूँ। मगर आज जी चाह रहा है कि अगर आज वो एक रुपए की टौफ़ी माँगेगी, तो कम से कम पाँच टौफ़ियाँ दूँगा।
भई वाह, भारतेंदु ने भी क्या ख़ूब कहा है।