‘ मौन इक सँवाद ‘
व्योम, कह पाया भी कब,
वसुधा से, मन की बात।
चाँँद-तारे, भी मगन हो,
नित्य, रहते साथ।।
पर्वतों के, हृदय मेँ भी,
प्रेम का, आवास।
अश्रु, झरना बन हैं बहते,
कब, किसी को ज्ञात।।
कोई पहुंचा दे, कभी,
उन तक, मेरी फ़रियाद।
राह के कँटक, बुहारूँ,
हो मिलन, निर्बाध।
हो न कोई, उलहना अब,
ना कोई प्रतिवाद।
एकटक, उनको निहारूँ,
मौन हो, सँवाद।
दीप “आशा” के जलेँ,
हो धुँधलकोँ की, हार।
दीप्तिमय, हो जाए उर,
सब भ्रम मिटें, इक बार..!
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