मैं हूँ किसान।
मैं हूँ एक किसान ,
मिट्टी है मेरे लिए भगवान ।
वह है मेरी शान,
और मैं उसका हूँ सन्तान।
जब पसीना मेरा बहता है,
तब जाकर भोग मिट्टी पर
चढता है।
फिर प्रसाद रूप में मुझको,
मिलता है अन्न का दान।
पत्थर का सीना चीरकर मैं
उसको उपजाऊ बनाता हूँ।
धरती को अपनी मेहनत से,
मैं उसको पिघलाता हूँ।
कई जतन करने के बाद ,
मैं उसपर फसल उगाता हूँ।
कितने तपस्या के बाद मैं
अन्न का दाना पाता हूँ।
सुरज की किरणे जब मेरे
बदन को तपाती है,
तप कर मेरा बदन जब
काला पर जाता है।
तब जाके खेतों पर अपने
मैं हरियाली ला पाता हूँ।
बारिश में भीग-भीगकर
मैं फसल लगाता हूँ।
चाहे मूसलाधार बारिश हो
पर मै कहाँ हार मानता हूँ।
ठंड मै ठिठुरती जब दिन-रात होती है,
लोग अपने घर मैं छिपे हुए रहते है।
फिर भी मैं खेतों पर रहकर
अन्न की रखवाली करता हूँ।
न जाने कितने परिश्रम के बाद ,
अन्न का दाना घर पर लाता हूँ।
पर कहा मुझे इस अन्न का
उचित दाम मिल पाता है।
आज भी मेरे परिवार का जीवन,
कष्ट में ही बितता है।
इतनी मेहनत के बाद भी
मेरी हालात कहाँ सुधर रही है।
मेरी स्थिति आज भी तो,
बद से बदतर होती जा रही है।
~ अनामिका