मैं सोच रही थी…!!
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हाँ तो, मैं सोच रही थी,
कि कुछ लिखा जाये,
मगर!, मुद्दा ये है कि, मुद्दे इतने हैं,
किस मुद्दे पर लिखा जाए, समझ नहीं आ रहा.
देश की दशा- दिशा ही कुछ ऐसी चल पड़ी है,
कि हवा का रुख भी समझ नहीं आ रहा.
एक आग बुझने से पहले दूसरी सुलग जाती है,
ज़िन्दगी के फ़हम से पहले ही,
ख़ाक हो रही जवानी है,
तालीम तो ली मगर, शऊर कहा से लाये?
शमा जलने से पहले, जो परवाना जल जाये.
इस उथल पुथल ज़िन्दगी में,
राजनीतिक दखल जो बढ़ रहा है.
ऐसा लग रहा है मनो,
इस शांति के पीछे तूफ़ान आगे बढ़ रहा है.
जैसे, कोई भूचाल, धरती को निगल रहा है.
कभी कोई गैंगवॉर, कोहराम, कभी शहादत,
कभी अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार की दहशत,
क्या कहें !! यहाँ हर कोई भगवान बना है,
नेता से ज़ज़ तक सब कोई खुदा बना है.
प्रकृति के भी उलट यहाँ माहौल बना है.
किस मुद्दे पर लिखा जाए, समझ नहीं आ रहा है.
©️ रचना ‘मोहिनी’