मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ, धरती पर गिर जाता हूँ।
झर-झर, झर-झर तेज हवाओं में, निरंतर बहता जाता हूँ।।
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ….
गमलों में खिल जाता हूँ, पहाड़ों पर भी मिल जाता हूँ।
हिमालय की बर्फीली सतह की संजीवनी कहलाता हूँ।
जड़ी-बूटी और औषधि रूप में, मैं अमर हो जाता हूँ।।
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ….
कभी खुशबू में लहराता हूँ, कभी काँटो से टकराता हूँ।
कभी तोड़ दिया जाता हूँ कभी स्वयं ही टूट जाता हूँ।
फूलों के संग मिलकर के, गुलदस्ता बन जाता हूँ।।
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ….
उगाया भी जाता हूँ, स्वयं भी उग-उग आता हूँ।
रामा-श्यामा कहलाकर, मैं दैव बन जाता हूँ।
बनकर के कृष्णप्रिया, घर-घर पूजा जाता हूँ।।
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ….
चट्टानों पर उग आता हूँ, बारिश में खिल जाता हूँ।
सूरज की तेज लपटों में, सूख के मुरझाता हूँ।
शिव-शम्भू पर चढ़कर मैं, बेलपत्र हो जाता हूँ।।
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ, धरती पर गिर जाता हूँ।
झर-झर, झर-झर तेज हवाओं में, निरंतर बहता जाता हूँ।।
मैं शाख का टूटा पत्ता हूँ….
– सोनल मंजू श्री ओमर