मैं धरा सी
मैं धरा सी
बहुत बोझ अब तक मैं सह गई।
इस धरा सी मैं आखिर चुप रह गई।
बहुत बार चीरा गया मेरा सीना।।
लिया सीख मैंने अब अश्क पीना।
सब कुछ ज़ज्ब अंदर मैं करती रही।
धीरे धीरे अंदर से मैं मरती रही।
आज जागे हो तो क्या मैं करूं
कैसे कोख अपनी मैं हरी करूं।
नोच नोच मुझको सब खाते रहे।
मां मां लेकिन सब बुलाते रहे।
सुरिंदर कौर