मैं थका हुआ हूँ
कोई काम नहीं है,पर मैं थका हुआ हूँ भारी,
मन है बोझिल बना हुआ,और तन में है थकान भारी,
शायद इसलिए कि बच्चों को पढा लिखा कर निभाई है अपनी जिम्मेदारी,बच्चे अपनी गृहस्थी में हैं,निभा रहे हैं अपनी हिस्सेदारी।घर पर तो हम दो प्राणी हैं,और साथ में है हमारी तन्हाई,बस उसे दूर करने को, करते हैं जब हम चर्चा,कभी ठन्डे मन से होती बातें,कभी गरमा गरम चर्चा,कभी बहुत आन्नदविभोर होते,कभी सहमे सहमे रहना पडता,हम दोनो कि नहीं कोई जरूरत ज्यादा,
पर फिर भी कम नहीं अपना खर्चा,निर्वाह करने को सामाजिक वन्धन हैं,और ब्यस्त रहने का भी यह एक तरीका,कुछ समय इसमें भी बीत रहा ,है यह भी जीने का सलीका।मुझ पर थी कभी आस बहुतों की,और उसके लिए जुटा था मैं भी,पहचान मिली थी जिनके बूते,वही अब हमसे कटते जाते,आया है ऐसा वक्तअब,
लोग हमसे यों ही हैं रूठ जाते,हम कभी उनकी प्रेरणा होते थे,आज वही हमसे हैं कट जाते,
हम एक-दुसरे के पुरक होते थे,वही अब हमसे हैं बैर खाते, वक्त बदला-लोग भी बदले,रह गये हम दिल को समझाते,थक हार कर बैठें हैं घर पर, लोग अब हमसे मिलने से कतराते,तब हमें अपनी तदबीर पर था भरोशा,अब अपनी किस्मत को अजमाने से डर जाते,
तन बदन यह बोझिल सा है,लक्छ अभी भी कुछ बाकी है,पर ऊर्जा अब न शेष बच्ची है।