मैं कहता हूँ खुद को दुर्योधन
मैं कहता हूँ खुद को दुर्योधन
क्योंकि मैं दुर्जय था
लेकिन नाम सही सुयोधन था ,
नेत्रहीन पिता मेरे
गद्दी उनसे छीनी गयी
उनको पितामह ने ये धीरज दिलवाया था
की संतान प्रथम तेरी ही
इस राजगद्दी की अधिकारी होगी
अगली पीढ़ी तेरी ही
विराजमान इस पे होगी ,
पर हाय रे दुर्भाग्य
फिर छल इक बार हुआ
खुद को इतिहास ने दोहराया था
कहा गया की पांडव नीति कुशल हैं
अब राजगद्दी उनकी है
फिर क्यों न लड़ता मैं खुद के अधिकारों को लेकर ?
ये अधिकार हमारा था
कहते हैं याग्यसैनि का मैं अपराधी था
भरी सभा में अपमान किया उसका
हाँ मैं कहता हूँ की मैं दोषी था
लेकिन धर्मराज कहीं अधिक दोषी थे मुझसे ,
तुमने उनको क्यों माफ़ किया ?
पहला अपमान किया उस पांचाली ने था
‘अंधे का पुत्र कहा अँधा ‘
मैंने भी प्रतिकार लिया
लेकिन नारी का सम्मान उच्च है
उस कसौटी पे मैंने गलत किया
लेकिन उन पंचरत्नों ने
क्यों पांचाली का दाँव किया
दोषी वो दीर्घ रहे क्योंकि
वो उनकी पत्नी थी
आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति
फिर माँ कुंती के पुत्रों ने तब
भरी सभा में
क्यों न शस्त्र उठाये थे ?
हर छल प्रपंच किया महाभारत में
पाण्डु के पांच सुतों ने
फिर मैं ही क्यों?
फिर मैं ही क्यों ?
हर कांड का दोषी कहलाता हूँ
अपने ही अग्रज वो सूत पुत्र कहते थे
मैंने तो उसको अपना हृदय बनाया था
उस पर भी अधिकार सिर्फ़ मेरा था ,
युद्ध भूमि में मैंने अपना कर्म निभाया था
मैं तो केवल नर था
उनके साथ नारायण थे
जो देखो निष्पछता से
तो मैंने अपना धर्म निभाया था
अधिकारों की खातिर रणभूमि में अपना जीवन शेष दिया ,
मुझको स्वर्ग मिले ही क्यों ?
इस पर भी उन पांचो ने माधव से विवाद किया
तब केशव बोले थे –
वीरगति को प्राप्त हुआ हर योद्धा स्वर्ग का
अधिकारी है ,
मैं कहता हूँ खुद को दुर्योधन
क्योंकि मैं दुर्जय था
लेकिन नाम सही सुयोधन था |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’