मैं इक निर्झरिणी नीर भरी
मैं इक निर्झरिणी नीर भरी
अश्रुओं से यूँ अक्षि सँवरी
बन संगीत इक भीतर सजा
कभी विरह तो हॄदय बसा।
यूँ ही नभ बरबस निहारती
पिपासा इक भीतर कराहती
हो घनघोर पयोध बरसते
शुष्क से नयन आकुल तरसते।
स्वर्णिम रम्य आच्छादित कोना
धरा तो इक सुंदर बिछौना
अमृत सा नीर झर झर बहा
लेकर संग फिर अनुराग विदा।
क्षितिज तब इक सुदूर दिखता
उदधि कंज सा बनके खिलता
स्वप्निल नयना आकुल बने
थमते अधर ये बिन कुछ कहे।
विभावरी तो क्षणिक ठहरी
जिजीविषा इक भीतर पली
रोम रोम यूँ अविच्छिन्न बना
तमस सदन में प्रदीप ढला।
हिय नगर भावनाओं से भरा
कोई न कभी अपना बना
शुष्क सी बन अमृत को तरसी
कल जीवित थी आज मिट चली।
✍️”कविता चौहान”
स्वरचितएवं मौलिक