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24 Apr 2020 · 3 min read

मेरे बचपन की कहानी

मेरे बचपन के वक़्त तो मुर्गों की बांग नींद से जगाती थी
कभी बाबा के तानें , तो कभी मम्मी का प्यार ,
बिस्तर छुड़वाती थी ।
सूरज के जगने से पहले ही ,
दिन शुरू हो जाता था
हर कोई अपने काम को लेकर ,
काम में लग जाता था ।
नहा धोकर स्कूल जाने को सब तैयार होते थे,
जिनको मन न होता जाने का ,
पेट पकड़कर रोते थे ।
कई मील चलने के बाद हम अपने स्कुल पहुंच जाते थे,
अपनी अपनी क्लास में जाकर बैग रखकर आते थे,
मॉर्निंग असेंबली के नाम पर बस राष्ट्रगान ही गाते थे,
फिर सारे अपनी अपनी क्लासेज में वापस जाते थे ।
रॉल कॉल के बाद तुरंत शुरू पढ़ाई होती थी,
शायद ही कोई पीरियड था,
जिसमें न होती पिटाई थी ।
चार पीरियड बाद हमारा लेज़र हो जाता था,
बड़े चाव से हर कोई अपना टिफ़िन बैठ के खाता था ।
फिर भी घर के टिफ़िन में चने वाले की कहां बात थी
चूरण ,अचार ,चना, पानीपुरी हम लोगों की आदत थी ।
स्कूल के बाद शाम को फिर सब खेलने को आते थे,
जब तक न चिल्लाये बाबा घर को हम नहीं जाते थे ।
न फेसबुक न व्हॉट्सएप न स्मार्टफोन तब होते थे,
मेरे बचपन के वक़्त तो घर में तोता मैना होते थे।
गर्मियों में हर कोई पतंग उड़ाकर , झूले झूलते रहते थे,
छुट्टी के दिन कंचे खेलने , बूढ़े बच्चे बन पड़ते थे ।
शनिवार का आधा स्कूल ,एक उत्सव था त्यौहार था,
‘रंगोली’,’चित्रहार’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’ इन सबसे ही रविवार था।
बिजली जाती रात को तब सब भूतिया कहानी सुनते थे
‘मालगुड़ी डेज’ के मीठे सपने हम आंखों में बुनते थे।
‘सुरभि’ देखके हर कोई अपने जी.के. का लिमिट बढ़ाता था
‘विक्रम बेताल’ के हर एपिसोड में ,बेताल आखिर उड़ जाता था ।
‘अलिफ़ लैला’ की दुनिया में अलग अलग सी कहानी थी
‘चंद्रकांता’ देखने को मेरी जनरेशन ही दीवानी थी।
अलग अलग सिक्के और माचिस के कवर हम खोजते थे
‘व्योमकेश बक्शी’ और ‘तहक़ीक़ात’ में असली विलन कौन सोचते थे।
वो गर्मी के मौसम में ‘गोल्ड स्पॉट’ , ‘सिट्रा’ सबने गटकी थी
‘किस्मी’, ‘मेलडी’ की टॉफियां उस वक़्त ज्यादा चॉकलेटी थी।
‘लीला’, ‘बघीरा’, ‘का’, ‘भालू’ सबसे ‘मोगली’ की यारी थी
‘शक्तिमान’ की “छोटी छोटी मगर मोटी बातें ” कितनी प्यारी थी।
‘चंदामामा’ ,’फैंटम’, ‘टिंकल’, ‘चाचा चौधरी’ सब पढ़ते थे
‘ज़ी हॉरर शो’ और ‘आहट’ के बाद टॉयलेट जाने को डरते थे।
फ़ोन आने पर उसे उठाने को घर में रेस शुरू हो जाते थे
नंबर सभी बिना सेव किए हमको याद रह जाते थे।
पहले कहां मां बाबा ‘क्लासमेट’ की कॉपिया दिलवाते थे
बड़ी मेहनत से भूरे कवर कॉपी-किताबों में हम लगाते थे।
नए साल पे दीवारों पर ग्रीटिंग कार्ड्स की मालायें सजती थी
उन दिनों हर किसी के घर में ‘फाल्गुनी पाठक’ बजती थी।
तब कहां लड़कियां सुन्दर दिखने को ब्यूटी पार्लर जाती थी
चेहरे पे पाउडर और माथे पे ‘शिल्पा गोल्ड’ लगाती थी।
कुछ खास हमारा बचपन था और खास हैं यादें उनकी,
बस यादें ही रह गयी अब , उस बीते हुए जीवन की।
वो दिन न फिर आएंगे , न आएंगी वह रातें,
जब फ़ोन बिना हम सामने से, कर लेते घंटों बातें ।
वो ज़िन्दगी हर लम्हें में मीठी महक उड़ाती थी,
मेरे बचपन के वक़्त तो मुर्गों की बांग नींद से जगाती थी ।

-जॉनी अहमद “क़ैस

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