मेरे पेड़ की चाह,अरण्य को बचाने की राह
मेरे घर के पेड़ ने मुझसे कहा
जब उसका दिल,अजी खामोश नहीं रहा
मैं कितना खुशनसीब हूं जो तेरे आंगन में हूं
हर वक्त आजाद हूं चाहे कितने भी बंधन में हूं
अरण्य के आंगन में होता तो कट जाता
मिट जाता
मेरी अर्थी भी कौन उठाता
मेरा अंतिम संस्कार भी ठीक से नहीं हो पाता
उन पेड़ों पर मुझे बहुत तरस आता
तू क्यों नहीं वहां जाता ?
उनकी जान बचाता
तू अपनी क़लम क्यों नहीं चलाता ?
वो भी तो मेरे अपने हैं
तेरी आंखों में भी तो जीने के सपने हैं
फिर क्या सोच रहा है ?
किसे ख़ोज रहा है ?
तुझे मेरी आत्मा का वास्ता
तू निकाल उनको बचाने का रास्ता
मेरा आशिर्वाद तेरे साथ है
तेरे सर पे उन सभी पेड़ों का हाथ है
तू बचा,बना नई कहानी
वरना तेरी रंगों में खून की जगह है पानी
और फालतू है फिर तेरी जवानी
बस इतनी ही बात थी तुझे बतानी
अगर नहीं बचाया तुने मेरा परिवार
तो फिर चाहे जितना भी लिख सब है निरर्थक और बेकार
मैंने कहा मत हो उदास
समस्या गंभीर है पर जिंदा है अभी आस
संघर्ष अभी जारी है
और अब”आदित्य”के कलम की बारी है
पूर्णतः मौलिक स्वरचित सृजन की अलख
आदित्य कुमार भारती
टेंगनमाड़ा, बिलासपुर छ.ग.