मेरी किताब
खिड़की के शीशों पर गर्द जम चुकी है ओस की बूंदों से वो और भी घनी हो
गई है बाहर झांकने के लिए खिड़की की तरफ देखा पर वहां अब अपना ही प्रतिबिंब दिखाई दे जाता है जैसे हृदयपटल पर उसकी स्मृति आज भी पहले
सी सुघड़ है।आश्य यह नहीं कि रेखाएं यों ही मिट्टी पर उतर जाती
है या अमिट रह जाती है बल्कि इसके पीछे गूढ़ रहस्य है जो जीवन के भावविचार खट्टे मिट्ठे अनुभवों के साथ साथ धूंधली यादें लिए होती हैं।आईना भी मुस्कुराता है जब प्रतिबिंब मुस्काता है, दीवारे भी बोलती है जब दीवारों के मध्य आहट होती है ।सामने अलमारी में पुस्तके लबालब भरी हैं पर मेज पर रखी किताब के पन्ने मुड़कर पीले हो चुके हैं जानो किताब कई दिनों से नहीं पढी गयी हो हां यह सच ही है कि पिछले कई रोज़ से उस किताब को नहीं छुआ शायद तब से जब रिया उस शाम को यहां से चली गयी थी पर उस दिन वो क्यों चलो गयी थी यहां तक कि पुकारने पर भी वो नहीं लौटी।हां उसी दिन इस किताब को पढ़ रहा था शायद कहानी का मध्यांतर था किंतु क्यों लगता है कि कहानी का तो अंत हो गया था, पर शायद अभी भी है कुछ जो बचा है कहानी के दूसरे भाग में, बहुत कुछ है जाने क्या अंत होगा।जीवन मटमैले कागज़ों की भांति इन्ही किताबों में छिपा है लगता है शीशों के परे कोई और भी है धुंधला सा जो यहीं कहीं विचरता है कहीं रिया तो नहीं? नहीं वो तो लौट चुकी है पर .।किताब को मेज से उठाकर हाथों में लेने पर लगता है धूल से हाथ भी सन गये हो गर्द बाहर ही नहीं भीतर तक उतर चुकी है गहरी स्मृति की भांति।हाथ फेरने पर किताब का ऊपरी हिस्सा तो कुछ साफ हुआ ऊपरी आवरणअब भूरा होता चला गया पर इससे मेरे हाथ ही धूल में रंग गये खिड़की पर जमी धूल की परत विशाल लकीर सी चिमटी है अंदर भी और बाहर भी …
मनोज शर्मा