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17 Feb 2021 · 1 min read

मेरी आरज़ू को

मेरी आरज़ू को

मेरी आरज़ू को खुला आसमां नसीब न हुआ
मेरी आरज़ू को उस खुदा का करम नसीब न हुआ

मेरी चाहतों का समंदर कभी रोशन न हुआ
उनकी वफ़ा का मुझ पर कभी करम न हुआ

मैंने अपनी मुहब्बत में कोई कसार न बाकी की थी
मेरी मुहब्बत का आशियाँ कभी रोशन न हुआ

मेरी आरज़ू – ए – मुहब्बत कभी मेरी न हुई
मेरी बाहों को उनका प्यार नसीब न हुआ

हर पल उसकी आगोश में जीने की आरज़ू लिए जिया मैं
दो पल उसकी आगोश में जीना नसीब न हुआ

उसकी आँखों की मस्ती ने किया मुझे घायल
उसकी आँखों का जाम मुझे नसीब न हुआ

उनकी मदमस्त चाल ने किया था कुछ ऐसा असर
दो कदम भी उनका साथ नसीब न हुआ

मेरी आरज़ू थी मुहब्बत का आशियाँ रोशन करूं उनका साथ लिए
मेरी आरज़ू को मुहब्बत का आशियाँ नसीब न हुआ

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