मेरा स्वप्नलोक
नही सुंदर सुरबालाओं से
हो सजा सुंदर परिलोक !
नही सभ्य,सौम्य भद्रपुरुषों
का वो भव्य-भुवन भद्रलोक !!
मेरा तो पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !
जहाँ नारी,सज्जन,बहुजन
पूजाघरों में जा पाये बेरोक-टोक !
जहाँ हर घर,गाँव,नगर में
रह पाये सब अभय अशोक !!
ऐसा ही पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !
जहाँ हॅसी मिलती हो फुटकर
और खुशियां मिलती हो थोक !
जहाँ जन-जन में बसे प्रेम
मन में रमता हो आनन्द आलोक !!
ऐसा ही पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !
जहाँ सेना तनिक न छोड़ें भूमि
होती जितनी सुई की नोक !
देश सीमाओं की रक्षा में
अपने प्राणों को देती झोक !!
ऐसा ही पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !
जहाँ अभिव्यक्ति की धारा को
न बाॅध सके ना सके कोई रोक !
जहाँ हित परहित जनहित
लोकहित को न सके कोई टोक !!
ऐसा ही पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !
जहाँ हो सब स्वावलंबी
न कोई परजीवी जैसे जोंक !
जहाँ वीर साहसी हो सब
न हो कोई कायर डरपोक !
जहाँ दुष्ट आतंकीयों को
तुरंत भेजा जाता हो यमलोक !!
ऐसा ही पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !
चारों ओर हो सुख-शांति
स्वर्ग से भी सुन्दर लोक-विलोक !
ऐसा ही पावन मनभावन है
मेरे सपनों का वो स्वप्नलोक !!
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मौलिक एंव स्वरचित : रचना संख्या-१७
जीवनसवारो,मई २०२३.