*मेरा विद्यार्थी जीवन*
*#संस्मरण #मेराविद्यार्थीजीवन
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मेरा विद्यार्थी जीवन
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जब मैं प्राथमिक विद्यालय(टैगोर शिशु निकेतन) में पढ़ता था ,तब स्याही भरने वाले पेन तथा फाउंटेन पेन का प्रचलन आरंभ हो चुका था लेकिन फिर भी मुझे लकड़ी की तख्ती और उस पर पिंडोल घोलकर जिसे बुदक्का कहते थे, उससे लिखने की तथा खोखले बाँस को चाकू से छीलकर जो कलम बनाई जाती थी तथा स्याही में डुबो कर जिससे लिखा जाता था, उसकी भी कुछ थोड़ी – थोड़ी याद है। #फाउंटेनपेन उसे कहते हैं , जिसमें स्प्रिंग से पेन की निब को दवात की स्याही में डालकर इंक भरी जाती थी । दूसरा तरीका दवात के साथ ड्रॉपर का होता था तथा ड्रॉपर से स्याही भरकर उसे पैन में डाला जाता था। दोनों ही पद्धतियों में पेन ज्यादा से ज्यादा एक दिन काम करता था ।.अगले दिन उस में पुनः स्याही भरनी पड़ती थी । अगर भूल गए तो वह स्कूल में काम नहीं ्करता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल में हमारे बैठने की जो लकड़ी की सुंदर कुर्सी होती थी और उसके आगे जो डेस्क पड़ी होती थी उसके एक कोने में दवात बनाने के लिए एक खाँचा रहता था तथा लोहे की दवात उसमें पेंच से कसी रहती थी । जब घंटी बजती थी और स्कूल शुरू होता था ,तब चपरासी द्वारा सभी कक्षाओं में जाकर उस दवात में जो कि डेस्क पर लगी हुई होती थी ,स्याही भर दी जाती थी। फिर बच्चे उस स्याही का उपयोग करते थे। लेकिन बहुत जल्दी ही वह युग बीत गया। उसमें हाथ भी स्याही से रँग जाते थे तथा कई बार स्याही से रंगे हुए हाथ अगर चेहरे पर लग जाते थे तो चेहरा भी रँग जाता था । कपड़ों पर भी स्याही लगती थी । यह बात तो फाउंटेन पेन के जमाने तक भी चलती रही । पेन में स्याही भरते समय घर पर भी स्याही फैलती थी । अक्सर लीक होती थी। कई बार पेन को झटका देकर स्याही निकाली जाती थी ,तब पेन चलता था । उस जमाने में बॉल पेन शुरू हो गए थे लेकिन संभवतः यह माना जाता था कि बॉल पेन से सुलेख खराब होता है अतः बॉल पेन का उपयोग करने की मनाही रहती थी। धीरे धीरे फाउंटेन पेन चलन से बाहर हो गए क्योंकि यह प्रकृति का नियम होता है कि हर नई तकनीक प्रारंभ में अवरोधों का सामना करती है और उसके बाद पुरानी तकनीक को पछाड़ देती है । फिर बॉल पेन सब जगह छा गए ।
मेरी प्राथमिक शिक्षा कुल सात वर्ष की रही । एक वर्ष का शिशु (क) होता था तथा एक वर्ष का ही शिशु(ख) होता था । पाँच वर्ष कक्षा 1 से कक्षा 5 तक की पढ़ाई में लगते थे। मेरा जन्म 4 अक्टूबर 1960 को हुआ था । अतः लगभग पौने 3 वर्ष की आयु में मैंने शिशु (क) में टैगोर शिशु निकेतन में प्रवेश ले लिया था ।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि टैगोर शिशु निकेतन की स्थापना मेरे पिताजी ने 1958 में की थी तथा वह इस के प्रबंधक थे । लेकिन विद्यालय में सात वर्षों तक पढ़ते समय मुझे किसी भी स्तर पर इस बात का आभास नहीं होने दिया जाता था कि यह तुम्हारा निजी विद्यालय है। जैसे और बच्चे स्कूल में पढ़ते थे ,अनुशासन का पालन करते थे तथा गुरुजनों का आदर करते थे, मैं भी वही सारे संस्कार सीखता था ।
कार्य में ईमानदारी इतनी ज्यादा थी कि जब कक्षा 5 की परीक्षा हुई और उसका परीक्षाफल तैयार किया गया तब मेरा नाम विद्यालय में दूसरे स्थान पर आ रहा था । विद्यालय के प्रधानाचार्य जी ने मेरे पिताजी के पास घर आकर यह बताया कि रवि कक्षा में द्वितीय स्थान पर आ रहा है ! पिताजी ने बहुत सहजता से उत्तर दिया ” रिजल्ट जो भी आ रहा है ,ठीक है ।” इस तरह मैं कक्षा 5 में द्वितीय स्थान पर आया । प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले को लाल फीते के साथ एक मेडल गले में पहनाया जाता था तथा यह बहुत सम्मान का सूचक हुआ करता था । मुझे खूब याद है उस समय भी मुझे द्वितीय स्थान पर आने के कारण जो गर्व की अनुभूति होती थी वह आज भी बनी हुई है । प्रथम स्थान की खुशी तो केवल बिजली की छोटी – सी चमक होती है जो आसमान में दिखाई पड़ती है और चली जाती है लेकिन यह जो द्वितीय स्थान प्राप्त करने की सुगंध है वह 50 वर्ष बीतने के बाद भी मुझे गर्व से भर रही है ।
टैगोर शिशु निकेतन में मेरे हिंदी के अध्यापक श्री राज प्रकाश श्रीवास्तव थे। पढ़ाई के लिए समर्पित तथा निष्ठावान शिक्षकों में आप की गिनती होती थी। पिताजी आपके व्यवहार से बहुत प्रसन्न रहते थे तथा आपकी कार्यकुशलता और निष्ठा को आदर के भाव से देखते थे । उस जमाने में हिंदी के पर्यायवाची ,विलोम तथा अर्थ आदि के साथ – साथ सुलेख पर भी बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता था । वास्तव में मेरी हिंदी की जो नींव अच्छी पड़ी ,उसका श्रेय टैगोर शिशु निकेतन के वातावरण तथा मुख्यतः राज प्रकाश जी को जाता है ।
एक और घटना याद आ रही है । शिशु भारती हुआ करती थी ,उसमें बच्चे कोई कविता -कहानी आदि सुनाते थे। मैंने एक बार उसमें चेतक पर लिखी गई श्याम नारायण पांडे की हल्दीघाटी महाकाव्य की एक कविता सुनाई थी । वह मुझे इतनी पसंद थी कि कक्षा पाँच या चार के पाठ्यक्रम में मुझे पूरी अच्छी तरह याद हो गई थी । अभी भी वह मुझे याद है :-
रण बीच चौकड़ी भर -भर कर चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था
गिरता न कभी चेतक तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर या आसमान पर घोड़ा था
जो तनिक हवा से बाँग हिली ,लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं ,तब तक चेतक मुड़ जाता था
यह किसी काव्य की अमरता का गुण ही है कि 50 वर्ष बाद भी मैं उसी उत्साह तथा उमंग के साथ इस कविता को याद रखे हुए हूँ , जैसे सर्वप्रथम मैंने पढ़ी थी। हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों को प्रेरणा के स्रोत के रूप में अगर हम ग्रहण करते हैं तो हमारी चेतना राष्ट्र निष्ठा की ओर बढ़ेगी । चेतक ने मेरे जीवन में यही काम किया था ।
प्राथमिक विद्यालय का ही एक किस्सा और याद आता है । बात तो मामूली सी है लेकिन शायद कक्षा 5 की बात है । एक लड़की अक्सर अपने घर से गुलाब का फूल लेकर आती थी और वह कक्षा में किसी न किसी को भेंट कर देती थी ।जब मुझे वह फूल भेंट में मिलता था तो मुझे अच्छा लगता था और पूरे क्लास की अदृश्य ईर्ष्या का तब मुझे सामना भी करना पड़ता था । फिर उसके बाद वह लड़की मुझे कभी नहीं दिखी ।
कक्षा 6 में मैंने सुन्दरलाल इंटर कॉलेज में प्रवेश किया तथा यहाँ कक्षा 6 से कक्षा 12 तक की शिक्षा ग्रहण की । संयोगवश राज प्रकाश जी को बाद में पिताजी ने सुंदर लाल इंटर कॉलेज में शिक्षक के तौर पर नियुक्त कर लिया था। अतः यहां पर भी मुझे राज प्रकाश जी के दर्शनों का लाभ मिलता रहा । सुंदर लाल इंटर कॉलेज की स्थापना 1956 में मेरे पिताजी ने की थी । यहाँ पर भी परिवेश में मुझे जरा – सा भी यह एहसास नहीं होने दिया जाता था कि तुम प्रबंधक के पुत्र हो । किसी बात पर अहंकार करना तो बहुत दूर की बात थी -विनम्रता ,अनुशासन तथा अध्यापकों के प्रति पूजनीय भाव की शिक्षाएँ ही मुझे घुट्टी में मिली थीं।
हाई स्कूल में श्री राजेश चंद्र दुबे शास्त्री जी हमारे हिंदी के अध्यापक थे। असाधारण विद्वान तथा चरित्र के धनी शास्त्री जी वास्तव में एक आदर्श शिक्षक के रूप में कहे जा सकते हैं । उनकी भाषा बेहद साफ- सुथरी रहती थी । नपे – तुले शब्दों का प्रयोग करते थे । अनुशासन उन्हें प्रिय था तथा सिद्धांतों से हटकर कोई भी बात उन्हें स्वीकार नहीं थी । विद्यालय के सर्वश्रेष्ठ अध्यापकों में इस नाते उनकी गिनती थी। एक बार मैंने शास्त्री जी से बोर्ड की परीक्षाओं से काफी पहले पूछा कि क्या हम हिंदी के लेखकों और कवियों की कोई ऐसी सर्वमान्य जीवनी तैयार नहीं कर सकते कि चाहे किसी की भी जीवनी लिखने को आ जाए मगर हम कुछ न कुछ अवश्य लिख दें ? शास्त्री जी ने जड़ से मेरे सुझाव को खारिज कर दिया । बोले “ऐसा थोड़े ही होता है। हर लेखक और कवि का अपना – अपना विशिष्ट योगदान होता है। उसी के अनुसार उसके जीवन का परिचय होता है तथा वही लिखना होता है । ” मैंने शास्त्री जी की बात से सहमति जताते हुए बात को वहीं विराम दे दिया लेकिन फिर भी वह कीड़ा मेरे दिमाग में कुलबुलाता रहा और मैंने एक सर्वमान्य जीवनी मन ही मन में इस प्रकार से तैयार कर ली कि अगर कोई ऐसी जीवनी आ जाती है जो मेरी पढ़ी हुई नहीं होगी तब भी मैं कुछ न कुछ लिख दूँ। यह कुछ इस प्रकार की पंक्तियाँ थीं :-
” अमुक साहित्यकार का हिंदी साहित्य में स्थान सदैव अमर रहेगा। आपका अद्भुत योगदान था तथा आपने एक नए युग का सूत्रपात किया था । भाषा और शैली आपकी भावविभोर करने वाली थी । आपके पाठक आपकी कला पर मुग्ध थे ,आदि – आदि।”
हाई स्कूल की परीक्षा मैंने सम्मान सहित उत्तीर्ण की तथा मेरी मार्कशीट पर सम्मान सहित उत्तीर्ण लिखा हुआ पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था । हिंदी में भी मेरे 74 नंबर आए थे और इसका श्रेय मैं श्री शास्त्री जी की कठोर अध्यापन शैली को ही देना चाहता हूँ।
डॉक्टर चंद्रप्रकाश सक्सेना कुमुद इंटरमीडिएट में मेरे हिंदी के अध्यापक थे । उनका क्या कहना ! वह कलम के धनी थे ,हिंदी के उच्च कोटि के साहित्यकार थे ,लेखक और कवि थे । उनकी दार्शनिक मुद्रा थी । कक्षा में वह विषय को समझाते समय अनेक बार शेरो- शायरी को आरंभ कर देते थे तथा एक के बाद दूसरे शेर सुनाते रहते थे। वह काव्य की मस्ती में डूब जाते थे और अपने छात्रों को इस काव्य – रस में डुबकियाँ लगाने का स्वर्णिम अवसर प्रदान कर देते थे । शायद ही किसी विद्यालय में इंटरमीडिएट के छात्रों को इतना उच्च कोटि का लेक्चर प्राप्त करने का सौभाग्य मिल पाता होगा ।
इंटरमीडिएट करने के बाद मैंने बीएससी में रामपुर के राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रवेश लिया । यहाँ मैं घर से कालेज के लिए साइकिल से जाता था। मैं ही क्यों , सभी छात्र साइकिल से ही जाते थे । मुझे याद नहीं आता कि हमारे किसी भी साथी के पास कोई स्कूटर अथवा बाइक उन दिनों हुआ करती होगी ! जैसे इंटर कॉलेज का वातावरण था ,लगभग वैसा ही डिग्री कॉलेज का वातावरण मिला। कक्षा में अनुशासन के साथ जाकर बैठ जाना तथा पढ़ाई पूरी करके साइकिल उठा कर घर चले आना, यह मेरी दिनचर्या थी। हमें जिन – जिन विषयों के अध्यापक पढ़ाने आए ,उन्होंने जिन – जिन लेखकों की पुस्तकें खरीदने के लिए कहा ,मैंने वह पुस्तकें खरीद लीं। हमारे अन्य साथियों ने भी बहुत सरलतापूर्वक अध्यापकों द्वारा बताई गई पुस्तकें खरीदी थीं और इसमें कुछ खास कठिन महसूस नहीं हुआ । यह लगभग वैसी ही पढ़ाई का क्रम था ,जैसा इंटरमीडिएट में रहा था । सिर्फ विद्यालय बदला । विद्यालय जाने का तथा जीवन का क्रम लगभग वही रहा।
बीएससी करने के बाद मैं एलएलबी करने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय चला गया । यद्यपि मेरी भाग्य की रेखाएँ यही लिख रही थीं कि मुझे पैतृक सर्राफा व्यवसाय ही करना है । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मुझे डॉक्टर भगवान दास छात्रावास का कमरा नंबर 42 मिला । इसमें करीब सौ कमरे ग्राउंड फ्लोर तथा फर्स्ट फ्लोर पर मिलाकर होंगे । बड़ा हॉस्टल था। हॉस्टल के अंदर मैस चलती थी। यद्यपि मुझे खाने में बहुत दिक्कत आई क्योंकि मैं सिवाय दही तथा आलू की सब्जी के और कुछ भी पसंद नहीं करता था। प्याज खाता नहीं था। दाल पतली बनती थी ,जो मुझे पसंद नहीं आती थी। अतः मैं दोपहर को कुल्हड़ में पावभर दही बाजार से खरीदता हुआ कालेज से छात्रावास को लौटता था तथा मैस में भोजन कर लेता था ।
विशेष स्मरण आ रहा है ,छात्रावास के प्रवेशद्वार के निकट बने हुए एक कमरे का जिस पर अध्ययन कक्ष लिखा हुआ मैंने देखा और फिर यह उत्सुकता जगी कि इस पर अध्ययन कक्ष क्यों लिखा हुआ है ? मालूम चला कि यह वाचनालय के रूप में पढ़ने की दृष्टि से बनाया गया था लेकिन क्योंकि बच्चे अखबार ले जाते थे, पढ़ना नहीं चाहते थे अतः यह बंद चल रहा है। मैंने छात्रावास के अपने शुरुआती दिनों में ही वाचनालय को शुरू करने का निश्चय किया। अपने सहपाठियों को साथ में लेकर वातावरण निर्मित किया । वार्डन महोदय से अनुमति प्राप्त की । मुझे स्कॉलरशिप मिलती थी । उस पैसे से मैंने अखबार तथा पत्रिकाएँ खरीदना शुरू किया तथा उन्हें लेकर प्रतिदिन लगभग एक घंटे वाचनालय में बैठने लगा। धीरे – धीरे विद्यार्थी वाचनालय में आकर अखबार तथा पत्रिकाएँ पढ़ने लगे । मैंने इस संपूर्ण कार्य को काशी छात्र परिषद का नाम दिया । फिर हम विचार गोष्ठी छात्रावास के हॉल में करने लगे । उसमें हम विश्वविद्यालय के अध्यापकों को बुलाते थे तथा छात्रों द्वारा विभिन्न विषयों पर विचार व्यक्त किए जाते थे ।
विश्वविद्यालय में मालवीय भवन में एक बार #डॉक्टरकर्णसिंह तथा #काशीनरेश डॉक्टर विभूति नारायण सिंह का व्याख्यान का कार्यक्रम हुआ। मैं भी दोनों महानुभावों के दर्शनों के लिए कार्यक्रम में पहुँचा था । कार्यक्रम के उपरांत मैंने सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक में महर्षि अरविंद के आर्थिक दर्शन पर छपा हुआ अपना लेख डॉक्टर कर्ण सिंह को दिया । वह खुश हुए और उन्होंने उसे ले लिया । मुझे उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई ,जब एक दिन मेरे छात्रावास के पते पर डॉक्टर कर्ण सिंह की चिट्ठी मेरे पास आई । जिसमें उन्होंने मेरे लिखे की प्रशंसा की थी । उन दिनों विश्व हिंदू परिषद द्वारा राम जन्मभूमि आंदोलन आरंभ किया जा चुका था तथा डॉ. कर्ण सिंह इस अभियान से जुड़ने लगे थे। उनके लेटर पैड पर संभवतः विराट हिंदू समाज लिखा हुआ था ,जिस में नारंगी रंग का उपयोग बहुतायत से किया गया था । खैर , उस कार्यक्रम में जो थोड़ी – सी चर्चा हुई वह कुछ याद आती है । काशी नरेश ने अपने संबोधन में डॉक्टर कर्ण सिंह को महाराजा कहकर संबोधित किया। इस पर डॉक्टर कर्ण सिंह ने मुस्कुराते हुए तुरंत आपत्ति जता दी और कहा कि भूतपूर्व कहिए ? काशी नरेश अब सजग हो गए और उन्होंने बहुत दृढ़ता पूर्वक कहा “एक राजा कभी नहीं मरता । वह हमेशा राजा ही रहता है। राजा तभी भूतपूर्व नहीं होता ।” उसके बाद डॉक्टर कर्ण सिंह ने कोई टोका – टोकी नहीं की । संभवतः वह समझ गए थे कि वह काशी नरेश को अपनी बात नहीं समझा सकते । काशी नरेश का देशभर के राजाओं में अपना अलग ही विशिष्ट महत्व था । मुझे मेरे सहपाठियों ने बताया था कि जब काशी नरेश जनता के बीच आते हैं ,तब” हर हर महादेव” के नारे से दोनों हाथ खड़ा करके लोग उनका स्वागत करते हैं। उनके विरुद्ध एक शब्द भी सुनने के लिए काशी की जनता तैयार नहीं है । वास्तव में महाराजा ने अपने सदाचरण से यह प्रतिष्ठा अर्जित की है। मुझे मेरे सहपाठियों ने बताया था कि काशी नरेश बुलेट प्रूफ जैकेट पहनते हैं । मुझे प्रदर्शनी के दौरान जब काशी नरेश पैदल चलते हुए प्रदर्शनी देख रहे थे , उनके निकट जाने का अवसर मिला और मैंने प्रयत्न करके उनकी पीठ को जानबूझकर छुआ । मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने किसी लोहे की चीज को स्पर्श किया है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि सचमुच काशी नरेश बुलेट प्रूफ जैकेट पहनते हैं ।
बनारस में रहते हुए मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मूट कोर्ट कंपटीशन में पुणे जाने का अवसर मिला । उसके बाद अगले साल भी मुझे विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य मिला । यह प्रतियोगिता इस बार बनारस में ही थी । बिहार में साहिबगंज एक स्थान है । वहाँ मुझे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए वाद – विवाद प्रतियोगिता में जाने का अवसर मिला। यह जिला भागलपुर में पड़ता था।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में विधि संकाय में समय-समय पर विद्वानों के लेक्चर होते रहते थे । एक बार संविधानविद डॉक्टर डी. डी.बसु का लेक्चर हुआ ।उन्होंने अपने लेक्चर को स्वयं टेपरिकॉर्डर पर टेप किया था। लेक्चर के बाद हम विद्यार्थियों से उन्होंने कहा कि कुछ पूछना चाहते हो ,तो पूछ सकते हो । मैं वार्तालाप का इच्छुक था लेकिन अंग्रेजी बोलने में झिझक के कारण मुझे चुप रहना पड़ा ।
एक भाषा के तौर पर मैंने अपने जीवन के प्रारंभिक 12 वर्ष लगातार अंग्रेजी सीखने के लिए समर्पित किए । कक्षा एक से कक्षा 12 तक मेरे पास अंग्रेजी एक अनिवार्य विषय के तौर पर रही। रोजाना अंग्रेजी की कक्षाएँ लगती थी और हमें अंग्रेजी सिखाई जाती थी । इससे अंग्रेजी लिखना , पढ़ना तथा कोई अंग्रेजी में कुछ कह रहा है तो उसे समझना ,इतना तो आ गया लेकिन अंग्रेजी बोलने का अभ्यास किसी भी कक्षा में इन 12 वर्षों में 1 घंटे के लिए भी शायद नहीं कराया गया । इसलिए अंग्रेजी बोलने की झिझक बनी रही। भाषाज्ञान का भी हिसाब यह था कि जो प्रवाह मातृभाषा में होता है वह अंग्रेजी में कहाँ हुआ ? पारंगतता नहीं आई । प्रवाह अंग्रेजी में नहीं पैदा हुआ ।आधा – अधूरा अंग्रेजी ज्ञान पूर्ण करने के लिए मैं अंग्रेजी के अखबार को पढ़ता था। फिर भी अधूरा ही रहा। जिसके कारण बीएससी की इंग्लिश मीडियम की पुस्तकों को, विषय से ज्यादा अंग्रेजी समझने में, समय ज्यादा देना पड़ता था । यही स्थिति एलएलबी के कोर्स में भी आई । प्राथमिक में शुरुआत से अंग्रेजी माध्यम न होने का नुकसान मुझे पढ़ाई में अनेक बार उठाना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी का बोलबाला है। हाईकोर्ट में भी अंग्रेजी ही उपस्थित है। बाकी सभी जगहों पर भी अंग्रेजी का साम्राज्य छाया हुआ है ।जो लोग हिंदी प्रेम के कारण कक्षा एक से कक्षा 12 तक हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं ,वह अंग्रेजी भाषा-ज्ञान में पिछड़े ही रह जाते हैं ,यह मेरा अनुभव है।
कक्षा 12 के उपरांत मेरे पिताजी मुझे मेडिकल में भेजना चाहते थे । मैंने केमिस्ट्री और बायोलॉजी विषय में सम्मान सहित परीक्षा उत्तीर्ण की थी। विषय का मेरा अध्ययन अच्छा था और मैं आश्वस्त था कि मेरा सेलेक्शन मेडिकल में हो जाएगा ।लेकिन उस में पूछे गए प्रश्नों का लगभग 20% ऐसा आया जो मेरा इंटर में पढ़ा हुआ नहीं था। अतः हर बार मुझे असफलता का सामना करना पड़ा क्योंकि अंधेरे में चलाया गया तीर निशाने पर नहीं बैठता है ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश )
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