मेरा दर्शन ( my philosophy)
दर्शन शब्द सुनते ही जेहन में किसी की विचारधारा ,किसी का मत ,किसी की राय,किसी का वक्तव्य,और किसी के जीवन शैली का पता चलता है । दर्शन वास्तव में एक व्यापक समझ है दर्शन जीवन की गहराई का अनुभव भी हो सकता है और किताबी दुनिया से जन्मी एक असाधारण समझ । पर दर्शन तो दर्शन है ।
किसी ने खूब कहा है कि ,” बड़े लोगो के दर्शन का अनुसरण करो शायद सवालों के जवाब मिल जाये ।”
खैर दर्शन का वह मतलब नही है जो दर्शन मंदिरों के बाहर या अंदर ईश्वर के रूप में होता है ,यह दर्शन वह नही जो किसी के मिलने पर होता है । यह दर्शन तो व्यक्ति के व्यक्तित्व की गहराइयों की शोध है जो उसके मानसिक वह बुद्धिमता के तेज को प्रदर्शित करती है ,जो उसके विचारधारा से ओत प्रोत हो कर समाज -देश-रास्ट्र-व्यक्ति सभी के जीवन को सारगर्भित करती हैं ।
मेरा भी दर्शन कुछ खास नही,पर जीवन के आधी उम्र में दर्शन या विचारों से बंध जाना या भटक जाना लाजमी होता है ।
जिंदगी को करीब से देखने के बाद , सिद्धि-असिद्धि के मध्य समन्वय का स्थापित होना , तर्क-वितर्क की जिज्ञासा से खुद को प्रोत्साहित करना, परोपकारिता जैसे गुण जो जनसामान्य के आम है उनके संग तालमेल बिठाना, धार्मिक सहिष्णुता के पक्ष का समर्थन और ,मौज-मस्ती-बेबाक जीवन की शैली से स्वयं को सजाना ही मेरा दर्शन या विचार है ।
मेरा कोई उदेश्य आदर्शोउन्मुखी नही है ,मेरा घोर यथार्थवादी भी नही बल्कि इनके बीच का रास्ता मध्यममार्ग मेरी समस्याओं का निजात दिलाने वाला मेरा हथियार है । मौन मेरा पहले से ही विरोधी रहा है क्योकि मुझे लगता है ज्यादा मौन व्यक्ति पाखंडी,घमंडी और डरपोक बना देता है जरूरत है कि वक्त पर मौन को तोड़ देना चाहिए ।।
समाजिक-धार्मिक-रीति-रिवाज और परम्पराओं से इतर मेरा अधिक झुकाव स्वतंत्रता की तरफ़ है जो समानता से होकर गुजरती है मुझे अहस्तक्षेप की नीति पसंद है जो मुझे अनावश्यक और निरथर्क विचारों से बचाती है ।
मुझे राम-कृष्ण-दुर्गा-काली से इतर जैन-बौद्ध-सिख-यहूदी-इसाई में उतना ही रुचि है जितना इस्लाम के लोगो मे इस्लाम को लेकर और हिन्दू को गीता को लेकर । खैर मेरे लिए ईश्वर एक अनदेखा निराकार वस्तु है जिसे हम बिना देखे ही मानते हैं मैं भी मानता हूँ लेकिन मैं उन आडम्बरों से दूर रहता हूँ जो सामान्य की तुलना में ज्यादा है । मेरे लिए पुराण,गीता, कुरान,बाइबिल,ब्राहमण ग्रन्थ,वेद,उपनिषद केवल विचारों का संकलन है जो उस काल विषयवस्तु और परिस्थितियों से जन्मी आकांक्षा से किसी विद्वान की रचना से लिखी गयी थी । और कुछ नही ।जो ठीक भी है और नही भी ।
मैं अक्सर जैन के स्यादवाद को तरजीह देता हूँ कि कोई गलत नही होती है अगर गलत है तो विचार ,नजरिया या परिस्थिति ,और कुछ नही ।।
मुझे किताबे पढ़ने का शौक है शायद किताबो में मोटिवेशनल, इतिहास,शोध से सम्बंधित, प्रेम प्रसंगों से ओत प्रोत पसंद है वैसे भी किताबे आत्मसन्धान का एक अच्छा तरीका है ।
मुझे कुछ मात्रा में सिनेमा का भी शौक है ,चाहे वह हिंदी,भोजपुरी,और साउथ इंडियन हो ।पर समस्या यह है मुझे कोई हीरो नही पसंद या उसका नाम नही पता ।
मुझे घूमना,नई जगह पर जाना,और लोगो से मिलना-जुलना बाते करना ठीक लगता है ताकि स्वयं को खुश रहने का तरीका महसूस होता है ।
अतः जीवन के आधी दौर में यह दर्शन अभी परिपक्वता की आधी दूरी या एक छटाँक भर ही है जो आदर्शवादी और यथार्थवादी के मध्य पिसती और भटकती है फिर भी दर्शन का होना जीवन के अनुशासन को प्रदर्शित करता है कि व्यक्ति किसी विचार व राय में विश्वास करता है ।
~ rohit