मृत्यु
मैं मरते हुए व्यक्ति के
हृदय की समीक्षा नहीं कर सकता
अंतिम समय के वक़्त
मन, काल के अनंत जाल से
गुजरता होगा या फ़िर
अनंत में विलीन होने की
ख़ुशी से आत्मविभोर होता होगा
इसका मुझे आभास नहीं है
हाँ, मैं अपनी मृत्यु देखना चाहता हूँ
देखना चाहता हूँ
धीरे धीरे अंग काम करना
बंद करते होंगे क्या?
जो निकट बैठे होंगे
वो किस तरह मेरी मृत्यु को
गले लगायेंगे
मैं मरते वक़्त कोई अपेक्षा
नहीं रखना चाहता
ना जीवन से, ना वो साथी
जो बग़ल में बैठे होंगे
ना मृत्यु से
मैं चाहता हूँ मेरी सोच अंत में मरे
सोच से भाव को जोड़
मैं मरते वक़्त भी कुछ सृजन
कर पाऊँ
छोड़ जाऊँ इस पृथ्वी पर
कोई नया आधार
शायद मैं जीवित रह पाऊँ
उसी आधार में
पर मुझे जन्म जन्मांतर तक
जीवित रहने का मुग़ालता भी नहीं है
अपेक्षायें कहाँ मरती हैं
कोई अपेक्षा नहीं होना भी
शायद अपेक्षा का ही रूप है
क्या मैं अपने जीवित हृदय की
अपेक्षा भी भलीभाँति रूप से
पूर्ण कर पाया हूँ?
@संदीप