मृग-मरीचिका
प्रकृति का अद्भुत ढंग
जीवन में मिटते-भरते रंग।
जीवन-सागर भी कुछ
ऐसा ही है—
सपनों को समेटे
मिटती कामनाऍं।
विवशता के घेरों में
घुटती इच्छाऍं।
मिटने के भय से
भयाक्रांत मानव।
फिर भी जीता है
क्यूं ?
शायद आने वाला कल
उसका अपना हो।
कल पूरा उसकी
ऑंखों का सपना हो।
कल की कोख में
छिपी भविष्य की आस।
मृग-मरीचिका बनकर
जीने को बाध्य करती है।
प्रकृति को बनाकर साधन
इच्छाओं को साध्य करती है।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर(राजस्थान)