मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
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मृगतृष्णा की चादर ओढ़,
भटक रहा मानव इस जग में।
मातृगर्भ से वर्तमान तक,
खुद को समझ न पाया जग में ।
जन्म लिया निर्मल काया थी,
शैशव में निश्छल माया थी।
यौवनकाल भरमाया जग ने ,
झूठे अरमान सजाया जग में।
होंगे वृद्ध जब जर्जर काया में,
मृत्युशैया पर लेटा तब तन-मन ,
भ्रमित ही होगी मोहित माया में।
अंत समय तक फिर भी मानव ,
कुछ भी समझ न पाया जग में ।
तन की कंचन आकांक्षाओं को,
झूठ-सांच के जाल से बुनकर,
ऊँचे ख्वाब सजाया जग में।
रिश्तों के भंवर जाल में फंस,
मोहग्रसित मन पाया जग में।
मृगतृष्णा की चादर ओढ़ ,
भटक रहा मानव इस जग में।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )