शरणागति
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शरणागति
जय गिरिधारी, जय घनश्याम,
रटती हूँ मैं सुबहो शाम ।
कण-कण में रहते भगवान
कहते हैं यह वेद – पुराण ।
हर प्राणि से करती नेह
किस रूप में मिले प्रभु-स्नेह ?
बड़े भाग्य से पाई दुर्लभ देह !
किस विधि बनाऊँ प्रभु -गेह ?
उनके मिलन को तरसू हर क्षण,
तन-मन-धन करूँ मैं अर्पण ।
कब सुध लेगें, कब करेंगे वरण?
अहं त्याग उनकी ली शरण ।
– डॉ० उपासना पाण्डेय