मूर्खता
—-***—-
मानव की यह मूर्खता, समझे तनिको नाहि।
ईश्वर घट में रम रहा, खोजै मंंदिर माहि ।।
खोजै मंंदिर माहि , करै नित नित झाडू पोंछा
मन में कतनी गंदगी, कबहूं नहि यह सोचा
कवि “प्रीतम ” कह रहे, खोलो मन के द्वार
करौ न ऐसन मूर्खता, कबहुं न हो उद्धार ।।