मुर्दा यह शाम हुई
मुर्दा यह शाम हुई
उखड़े से लगते हैं लोग
टूटा टूटा सा परिवेश
बर्फ हुआ जाता आवेश
हिचकी सी लेती उपभोग
चौराहे पर अपनी धड़कन नीलाम हुई
बारूदी गंध अब झांकती
खिड़की से
कांपती निशा
हांफ हांफ जाती दिशा
बेचैनी अंबर को ताकती
जंग लगी चिंतन में
यात्रा यह जाम हुई
टूट-टूट श्रृंखला बिखरती
सिटी से बचती है कानों में
इस बीहड़ जंगल में
मैदानों में
अस्त-व्यस्त भावना विचरती,
चलती रहने वाली
जिंदगी विराम हुई
मुर्दा यह शाम हुई।।
: राकेश देवडे़ बिरसावादी