‘मुट्ठीभर रेत’
चमकता चाँदी सा बालू का खेत।
भर लाऊँ मैं बस मुट्ठीभर रेत।।
नदिया का सुंदर सा किनारा।
प्रकृति का अद्भुत इक नजारा।।
मचलता है मन होकर बैचेन।
ये ईश्वर की है अनोखी देन।।
भागता मन हो दूर तक चेत।
भर लाऊँ मैं बस मुट्ठीभर रेत।।
शिशु का भोला सा मन उदार।
ढूँढ़ लेता निज निराला संसार।।
हो आनंद मग्न डूबता जिस में।
रखता न कोई भेद भाव उसमें।।
नयन कहते हैं दो श्याम-श्वेत।
भर लाऊँ मैं बस मुट्ठीभर रेत।।
घरौंदा इक बनाऊँ प्यारा सा।
सुंदर साथी हो ज्यों दुलारा सा।।
धरा से व्योम तक सुदूर उछालूँ।
झरे तो झूमकर इसमें नहा लूँ।।
खेलूँ खेल यहाँ सखा मित्र समेत।
भर लाऊँ मैं बस मुट्ठीभर रेत।।
स्वरचित व मौलिक
-गोदाम्बरी नेगी(हरिद्वार)