मुझ में समाहित
मुझ में समाहित
नही जानती हूँ मैं कि कैसे
भूल पाऊँ तुझे लिखे खतों को
नहीं जानती हूं मैं कि दिल से
इजहार करने का कोई तरीका
बस समझ आया ये ही सलीका
मुझे बस यही कि रात की तन्हाइयों में
इन पुराने लिखे खतों को पढ़ना
नये नए रूप में तुमको सोचना
शायद बेखबर हूँ मैं कि तुन तक मेरी प्रीत
कि मेरे दर्द की आवाज जा रही हैं कि नही
मैं जानती हूँ बस यही की याद तुम्हारी आती हैं तो
वो लिखे खत पढ़ सिर्फ यादों को ताजा करती हूँ
मैं तुमसे प्यार करती हूँ करती ही रहूँगी क्योंकि
तुम ही तो मेरा वो पहला पहला प्रेम हो जिस संग मैने
एक दिन में सौ साल की खुशियां साथ जी हैं
एक पल पल याद आता हैं ये खत अकेले में पढ़
अपनी मुस्कुराहट से तुम्हें याद करती हूँ रात की तन्हाइ में
हर बार करती हूँ आगाह अपनी सांसों को समझती हूँ
ओर फिर अकेले में ही इजहार करती हूँ दीवानों की तरह
मगर ये जो भी बेचैनी है मेरी सांसो में बढ़ाती हैं दर्द देती हैं
मुझ पर प्रेम का नशा इस कदर चढ़ा कि फिर कभी
उतरा ही नही मुझे हर सुबह का इंतजार रहता है कि शायद
ये जो भी फितूर है मेरी आंखों में वो दिन की रोशनी में
शायद फीका पड़ जाए ,राते अब मुझे काटने को आती हैं
मेरी तन्हाई ये गवाही दे रही हैं इस बात की कि मैं
कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ ओर रात भर टोर्च जलाकर
फिर से वही प्रेम पत्र पढ़ती हूँ जो लिखे तो तेरे नाम थे
पर कभी उनको पोस्ट न कर पाई न जाने क्यो
तुम ही बसे हो दिल मे दिमाक में
मेरी रातों के मेरी नींदों में
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद