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28 Jun 2023 · 14 min read

बिहार एवं झारखण्ड के दलक कवियों में विगलित दलित व आदिवासी-चेतना / मुसाफ़िर बैठा

बिहार के सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक अतीत के समृद्ध होने की बात हम प्रायशः लोगों को करते देखते हैं और उसका गुणगान अक्सर सुनने में आता है. पर यह अधूरा सच है, और यही बात पूरे भारत के अतीत की लगभग समूची झूठी गढ़ी गयी गौरवगाथा के सन्दर्भ में कही जा सकती है. बिहार को वैज्ञानिक और समतावादी सोच के बुद्ध की कर्मभूमि होने का गौरव दिया जाता है तो महामानव महावीर के जन्म लेने का. निकट इतिहास या कहे हमारे समय में आजादी के आंदोलन के दिनों में महात्मा गाँधी के कर्मरत होने का भी यश बिहार को जाता है. लेकिन क्या हमने कभी ठहर कर सोचा है कि इन महामानवों का बिहार की धरती में सेवा में उतरना हमारे लिए गौरवबोधक से अधिक शर्मिंदा होने का वायस है? यह ध्यान करने की बात है कि समाज की जलालतों-अस्वस्थताओं से मुक्ति के जो बड़े प्रयास किये जाते हैं और वे निष्फल से हो जाते हैं तो यह उस समाज के लिए शर्मिंदगी की बात है न कि अभिमान करने की. हम सुधार के प्रति सहृदय या स्वीकार भाव न रखकर उन महत् मानवों का तिरस्कार ही कर रहे होते हैं. फिर, किस बात का गौरव? जब हमने किसी के महान कार्य का मान रखा ही नहीं, उनके बताए समृद्धिदायक रास्तों पर चलने की परवाह ही नहीं की तो महज ‘हमारे महान’ का थोथा जाप करने का क्या मोल?

बिहार के सन्दर्भ में वर्चस्वशाली प्रभु जातियों से आने वाले साहित्यकार की दलित प्रश्न पर सरोकार की बात करें तो भारी निराशा हाथ लगती है. गद्य विधा हो या पद्य, हर जगह यही स्थिति है. और मुख्यधारा के लेखकों की यही सायास अन्यमनस्कता वह कारण रही है कि लगभग न के बराबर ही दलितों-वंचितों के दुःख-दर्द पर लेखनी चली है. यहाँ लेख का अभीष्ट काव्य-क्षेत्र की बात करें तो और भी उदासीनता बरते जाने के प्रमाण सामने आते हैं.

बिहार क्या, भारत स्तर पर जो पहला दलित कवि हमारे समक्ष उपस्थित हैं वे हैं भोजपुरी भाषी हीरा डोम. बिहार के इस दलित कवि की कविता ‘अछूत की शिकायत’ हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के सितंबर, 1914 में छापते हैं. यह हिंदी की पहली प्रकाशित और उपलब्ध दलित कविता के बतौर ली जाती है. कविता भोजपुरी में है जो की हिंदी की ही एक प्रमुख बोली है. इस लिहाज से, जाहिर है, भोजपुरी की भी यह किसी दलित कवि की प्रथम दलित विषयक उपलब्ध काव्य रचना है. यहाँ हम यह भी लक्षित कर सकते हैं कि दलितों द्वारा कविताएँ तो उस समय रची जाती रही होंगी पर उन्हें मंच देने वाला हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा कोई उदार सवर्ण संपादक नहीं मिला होगा. प्रकाशन व्यवसाय पर जब आज भी अक्सर सवर्णों का राज है तो सौ साल पहले दलितों को मंच देने वाले प्रेस के अस्तित्व के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता. आज ही कितने दलित रचनाकारों की चेतनापरक रचनाओं को जगह देने का हौसला इस वर्ग के संपादक एवं प्रेस करते हैं?

एक और बात गौर करने की है कि दलित कवि हीरा डोम को यह मंच बिहार में नहीं मिलता है, एक इतर प्रान्त में मिलता है, क्या उस समय बिहार से कोई वैचारिक-साहित्यिक पत्रिका नहीं निकल रही थी? बेशक, निकल रही होगी, पर ऐसी रचना न तो पत्रिका और उसके संपादक के मिजाज़ को ‘शूट’ करती और न ही उसके परम्परा-प्रिय पाठक को. रोचक अन्वेषण अथवा शोध का विषय यह भी है कि उस समय की ‘सरस्वती’ में कितनी ऐसी हिंदू भावना/देवता पर सवाल करती रचनाएँ (दलित या गैर दलित कलम की) छपी गयीं? एक और बात काबिलेगौर है कि पत्रिका का नाम (सरस्वती) ही हिंदू भावनाओं की सम्मति में रखी गयी और यहाँ ‘अछूत की शिकायत’ जैसी ईश्वर की अकर्मण्यता पर ऊँगली धरती या समदर्शी होने पर प्रश्नचिन्ह लगती कविता छप गयी. तय मानिये, यह तो संपादक के जीवट की बात थी. मुझे एक प्रसंग याद आता है कि ‘कादम्बिनी’ का संपादक बनने पर मृणाल पांडे ने पत्रिका का राशिफल विषयक एक स्थायी स्तंभ क्या हटाया, इस कदम के विरोध में इतने पत्र और मत आये कि इस प्रगतिवादी निर्णय को पुराग्रही दबावों के आगे वापिस लेना पडा.

ओमप्रकाश वाल्मीकि का मत है कि किसी भी बड़ी घटना पर तात्कालिक लेखन की परम्परा हिंदी में नहीं के बराबर है. नागार्जुन ने इस परम्परा को तोड़ा है. 1979 में बिहार के बेलछी हत्याकांड में जमींदारों के गुर्गों ने ग्यारह दलितों की आग में झोंक कर नृशंस हत्या कर दी थी. इसी घटना को आधार बनाकर ‘हरिजन गाथा’ की रचना की गयी थी. कवि की संवेदना और सहानुभूति कविता में सहज ही लक्ष्य है. घटना को ऐतिहासक मानते हैं कवि पर इसके कारणों में नहीं जाते, पृष्ठभूमि की बात नहीं करते. यानी, कवि की संवेदना ऊपरी ही साबित होती है, गहरे पैठने वाली अंतरतम से उपजी नहीं. (अलाव : नागार्जुन जन्मशती विशेषांक, जनवरी-फरवरी 2011)

‘सामाजिक परिवेश में व्याप्त विषमताओं, विसंगतियों पर नागार्जुन की पैनी दृष्टि है, जो ‘हरिजन गाथा’ की अभिव्यक्ति और काव्य दोनों में दिखाई पढ़ती है. आर्थिक विपन्नता, भूमिहीन मजदूरों के जीवन और उनकी समस्याओं का चित्रण कविता को मार्मिक बनाता है. लेकिन दलित जीवन के बीच उभर रहे विरोध की कहीं चर्चा नहीं होती. भविष्यवाणी के द्वारा जिस (दलित)क्रांति की परिकल्पना कवि ने की है वह थोपी हुई लगती है, क्योंकि दलित समाज में जो विरोध के स्वर पनप रहे हैं और उनका स्वरूप क्या है, उसका कहीं भी कवि संकेत नहीं देता.’ (वही, पृष्ठ 337)

बिहार क्षेत्र के गैर बहुजन समाज से आने वाले जिस प्रमुख कवि की रचना दलित सरोकारों को छूने वाली है वह है नागार्जुन. हिंदी में वे बाबा नागार्जुन नाम से वे ख्यात हुए और मैथिली में उन्होंने अपने मूल नाम ‘वैद्यनाथ मिश्र’ में ‘यात्री’ उपनाम लगाकर लिखा और कालान्तर में मैथिली साहित्य में अपने ‘यात्री’ उपनाम से ही अधिक जाने जाने लगे. नागार्जुन सर्वहारा एवं मेहनतकश अवाम के पक्ष में अपनी कविताई करते हैं जिसका एक महती हिस्सा दलित भी है. दलितों के प्रति उनकी चिन्ता प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ में झलकती है. प्रभु जातियों और और उनके वाग्जाल में भ्रमित बहुजनों द्वारा इस कविता की प्रशंसा बढ़-चढ़ कर की जा रही है. इस कविता को सायास अति महत्वपूर्ण बताया जा रहा है और यह जताने की कोशिश रही है कि दलितों की दीन-हीन दशा को लेकर बाबा सदृश प्रगतिशीलों ने भी कलम चलाई है. यहाँ द्रष्टव्य है कि नागार्जुन की इस अति प्रशंसित रचना को मुख्यधारा के आलोचकों ने प्रायः अभिनन्दन और प्रशातिपरक दृष्टि से ही ग्रहण किया है, आलोचना की जहमत नहीं उठाई गयी है. इसको लगभग पवित्र और अनालोच्य मान कर इसकी शंसात्मक व्याख्या की गयी है बिना कोई प्रश्न या शंका किये. यहाँ यह द्रष्टव्य है कि निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ के प्रति तो मार्क्सवादी माने जाने वाले आलोचकों तक ने पूजा-भाव ही बरता है. अचंभित करने वाली बात यह कि अंधविश्वासों और मिथक आधारित इस काव्यकाया की रामकथा को कोई कैसे आधुनिक कविता कह लेता है और प्रगतिशीलता का चोला उतर फेंकते हुए इसके सम्मान में निर्लज्ज होकर उतर आता है. जबकि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला यहाँ बीसवीं शताब्दी के समाजवादी-प्रगतिवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध कोई रचनाकार नहीं बल्कि हेय हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था के पुजारी बने खालिस रामभक्त से लगते हैं. जबकि ऐसे अधिकांश आलोचक इस कविता को दलित-चेतना की कविता के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते रहे हैं.

पुरुषोत्तम नवीन नामक एक समीक्षक दलित साहित्य के स्वानुभूत पक्ष की मजबूती की वकालत करने वाले दलित साहित्यिकों से मुखातिब हो झुंझलाते से कहते हैं कि ‘पूछा जा सकता है कि निराला की तोड़ती पत्थर, भिक्षुक, प्रेमचंद की पूस की रात, ठाकुर का कुआं और नागार्जुन की हरिजन गाथा जैसी रचनाओं को किस श्रेणी में रखा जाए। क्या इस तरह का लेखकीय आरक्षण दलित साहित्य पर ‘पुलिसिया पहरा’ नहीं होगा’? पर यदि इन्हीं से कोई प्रतिप्रश्न कर दे कि हिंदी साहित्य की विपुल पारंपरिक रचनाओं में ऐसे उदाहरणों का अकाल क्यों है तो शायद उन्हें जवाब देते बन न पड़े. कहने को तो आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी भी नागार्जुन को ‘अनभै सांचा’ का कवि करार देते हुए यह भी कह जाते हैं कि ‘हरिजन गाथा’ नामक महाकाव्यात्मक कविता लिखी, जिसमें नए युग के नायक का हरिजनावतार कराया। नागार्जुन ने इस हरिजन शिशु को वराह अवतार कहा है। वराह का अवतार अर्थात् वह धरती का उद्धार करने वाला होगा। नागार्जुन की कविता हिंदी साहित्य में एक नए बोध और शिल्प का आविष्कार करती है।

यदि उपर्युक्त ‘हरिजनावतार’, ‘वराह का अवतार’ जैसे शब्द नए बोध और शिल्प को प्रतीकित करते हैं फिर, मैं यह मत रखूँगा कि कीचड़ से भी कीचड़ को धोया जा सकता है!

दलित चेतना की कसौटी पर कसने में ‘हरिजन गाथा’ में कई तरह के विरोधाभास परिलक्षित होते हैं जिन्हें आलोचकों ने अनदेखा किया है. इसमें दलितों को ‘मनुपुत्र’ संबोधित किया गया है, इससे साबित होता है कि कवि पर वाम मिजाज़ नहीं वरन् हिंदू पारिवारिक संस्कार एवं मान्यताएं हावी हैं-
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं/ तेरह के तेरह अभागे/ अकिंचन मनुपुत्र/ जिन्दा झोंक दिए गए.
यहाँ ‘अभागे’ शब्द का प्रयोग भी कवि के नियतिवादी होने का संकेतक है.

बहरहाल, ‘हरिजन गाथा’ की ‘जन्मकुंडली’ की परीक्षा करते हैं. पहले ‘गाथा’ शब्द की व्युत्पत्ति एवं प्रयोग पर बात. इंटरनेटी ज्ञानकोष ‘विकिपीडिया’ के अनुसार, वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद 8।32।1, 8।71।14)। ‘गै’ (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्ति-लभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। ‘गाथ’ शब्द की उपलब्धि होने पर भी आकारांत शब्द का ही प्रयोग लोकप्रिय है. कितनी ही गाथाएँ ब्राह्मण ग्रंथों में उद्धृत की गई है।

जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में भी महावीर तथा गौतम बुद्ध के उपदेशों का निष्कर्ष उपस्थित करनेवाले पद्य गाथा नाम से विख्यात है। जैन गाथाएँ अर्धमागधी में तथा बौद्ध गाथाएँ पालि भाषा में हैं। इनको हम उन महापुरुषों के मुखोदगात साक्षात वचन होने के गौरव से वंचित नहीं कर सकते। तथागत की ऐसी ही उपदेशमयी गाथाओं का लोकप्रिय संग्रह धम्मपद है तथा जातकों की कथा का सार प्रस्तुत करनेवाली गाथाएँ प्राय: प्रत्येक जातक के अंत में उपलब्ध होती ही हैं। संस्कृत की आर्या के समान पालि तथा प्राकृत में गाथा एक विशिष्ट छंद का भी द्योतक है। थेरगाथा तथा थेरीगाथा की गाथाओं में हम संसार के भोग विलास का परित्याग कर संन्यस्त जीवन बितानेवाले थेरों तथा थेरियों की मार्मिक अनुभूतियों का संकलन पाते हैं। हाल की गाहा सत्तसई प्राकृत में निबद्ध गाथाओं का एक नितांत मंजुल तथा सरस संग्रह है, परंतु गाथा का संबंध पारसियों के अवेस्ता ग्रंथ में भी बड़ा अंतरंग है।

गाथा की चाहे आप जो भी परिभाषा या प्रयोग कर लें, दुःख और दर्द के बयान को गाथा तो कतई नहीं कहा जा सकता. गाथा होगी तो सुख की, संतृप्ति की, उपलब्धि की, आनंद और उल्लास की. जिस तरह हम मुहर्रम जैसे वेदनाभिव्यक्ति के पर्व को आप आमतौर पर खुशी से मनाये जाने वाले अन्य त्योहारों की तरह नहीं ले सकते, इस अवसर की बधाई या शुभकामना नहीं दे सकते उसी प्रकार दलितों के दुःख-दर्द, वंचना, अपमान भरे जीवन की कहानी और जो कुछ हो, गाथा नहीं हो सकती. सो, नागार्जुन द्वारा दिया गया शीर्षक ‘हरिजन गाथा’ उचित नहीं जान पड़ता. कोढ़ में खाज़ यह कि दलितों को अप्रिय ‘हरिजन’ शब्द भी इसमें प्रयुक्त है. जबकि इस कविता के रचनाकाल में ‘हरिजन’ शब्द अपने नकारात्मक प्रभाव के लिए पर्याप्त विवादित हो चुका था और वे इस शब्द से परचित थे. इसी कविता से- दिल ने कहा/दलित माओं के / सब बच्चे अब बागी होंगे.

हालाँकि यहाँ सब बच्चों के बागी/कानूनविरोधी! होने की भविष्यवाणी भी आपत्तिजनक है. यानी कि सबके सब नक्सलवादी हो जायेंगे! और यह भी अकारण नहीं है कि बौद्ध मतावलंबी होते हुए भी नागार्जुन के सांस्कारिक मन में वेदों के प्रति अगाध श्रद्धा बनी हुई है- दिल ने कहा-अरे यह बालक/ निम्नवर्ग का नायक होगा/नई ऋचाओं का निर्माता/ नए वेद का गायक होगा.
यानी कविता का श्रेष्ठता का मानदंड भी घूम फिर कर वेदों पर ही अटक आता है. यहाँ ‘निम्नवर्ग’ का प्रयोग भी जाति के भयावह सच को नकारने के द्विज वर्चस्ववाद के मेल में है, ‘निम्न-जाति’ का प्रयोग होना चाहिए था बल्कि सीधे सीधे दलित जाति कहा जाना चाहिए था जो वंचित समुदाय कविता में ‘रिसीविंग एंड’ पर है. कविता में भविष्यवाणी और ज्योतिषीय भाग्यफल के प्रति भी स्वीकार भाव है जो प्रगतिशीलता के मानकों के विरुद्ध है. कविता में गरीबदास साधु का प्रवेश इसी नियतिवाद को मान्यता देता चलता है-
अगले नहीं, उससे अगले रोज़/ पधारे गुरु महाराज/ रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास/ बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी/ लटक रहा था गले से/ अँगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का/ कद था नाटा, सूरत थी साँवली/… ऐसे आप अधेड़ संत गरीबदास पधारे/ चमर टोली में…
/’अरे भगाओ इस बालक को/ होगा यह भारी उत्पाती/ जुलुम मिटाएँगे धरती से/ इसके साथी और संघाती…’
तथापि आलोकधन्वा के मत में “नागार्जुन की कविताएं इतनी खुली है-इनमें चीजों, लोगों और घटनाओं का ऐसा गतिमान वर्णन है जिसके भीतर आना-जाना सामान्य जन के लिए भी सुगम हैं। उनमें कोई परंपरागत सोच नहीं है। सामंती अतीत की शास्त्रीयता में भी जहां लोकतांत्रिक और आधुनिक भावबोध की मूल्यवान रचनाएं मौजूद हैं, नागार्जुन उनसे भी अभिभूत होते हैं”।

‘हरिजन गाथा’ कविता को रचते नागार्जुन सामान्य ज्ञान से भी बहुत बावस्ता नहीं जान पड़ते या फिर उनकी याददाश्त बहुत कमजोर थी अथवा अपनी कविता में अधिक वजन डालने के लोभ में वे तथ्य से परे भी जा रहे थे. नहीं तो उनकी टेकनुमा यह पंक्ति कविता का हिस्सा नहीं बनती- ‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि…’
जबकि प्रमाण उपलब्ध हैं कि कविता की काया में अन्तर्हित कई ऐसी बातें बिहार में पूर्व में भी घटित हो चुकी थीं.

दलित लेखकों के प्रति अपने पूर्वग्रह को सहलाते एवं दूर की कौड़ी अविष्कृत करते विमलेश त्रिपाठी अपने ‘हरिजन गाथा – एक मानवीय पाठ’ शीर्षक एक आलेख में कहते हैं कि अगर इस कविता का कोई दलित पाठ तैयार करे तो कविता यह अवकाश देती है. यानी, किसी दलित की और से आने वाली आलोचना का क्या हस्र होना है, पहले ही धमका दिया गया है, कि इस कविता कि कोई भी अपक्षकर आलोचना पूर्वग्रह संचालित मति की देन जायेगी.

राष्ट्रकवि के रूप में ख्यात रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने देशभक्तिपरक और राष्ट्रवादी कविताएँ लिखकर यश कमाया. बाबा नागार्जुन के बाद ये दूसरे सबसे महत्वपूर्ण बिहारी कवि माने गए. दलित विषयक तो नहीं, पर ‘मिथिला’ नामक अपनी कविता में उनका हिंदू मिथकों के प्रति अगाध अतार्किक अतीत प्रेम उभरता है जो दलितों के यहाँ अग्राह्य है-

अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,
गरिमा की हूँ धूमिल छाया,
मैं विकल सांध्य रागिनी करुण,
मैं मुरझी सुषमा की माया।

मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि,
मेरे पुत्रों का महा ज्ञान ।
मेरी सीता ने दिया विश्व
की रमणी को आदर्श-दान।


मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ
विद्यापति कवि के मधुर गान…

बिहार से समकालीन कवियों की बात करें तो अरुण कमल सिरमौर हैं और उनको राष्ट्रीय स्तर पर भी लगभग यही स्थान प्राप्त है. पटना में रहने वाले इस आलोचक-संपादक एवं प्राध्यापक कवि के अबतक पांच काव्य-संग्रह आ चुके हैं. मज़ा यह कि सीधे दलित प्रसंग की कोई कविता इनके पास नहीं दिखती. अलबत्ता, दलित विमर्श का यह तथ्य वायस हो सकता है कि क्यों प्रगतिशील कवि अरुण कमल ने अपने चारों संग्रह को शुरू करने से पहले तुलसीदास की चौपाई मंगलाचरण की तरह लगा दी है.

वैसे, बिहार के ही एक युवा आलोचक प्रमोद रंजन (जो चर्चित बहुजनवादी वैचारिक-साहित्यिक पत्रिका ‘फॉरवर्ड प्रेस’, जो अब बन्द हो चुकी है, के प्रबंध संपादक रहे हैं) ने अरुण कमल की एक कविता से वह दलित प्रसंग ढूंढ़ निकला है जिसमें दलितों-बहुजनों के प्रति कवि की दृष्टि उच्चवर्णीय ठहरती है. अरुण कमल की कविता ‘दस जन’ की पंक्ति – फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते – की याद दिलाते हुए प्रमोद रंजन कहते हैं कि सिर्फ रामविलास शर्मा आदि आलोचकों की ही नहीं बल्कि मौजूदा समय में रचनारत तमाम मार्क्सवादियों की प्रतिबद्धताओं की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि अरुण कमल ने यह कविता 1978 में उस समय लिखी जब उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी। ये गली के कुत्ते कौन हैं, आप समझ सकते हैं। इसी कविता में अरुण कमल की ही पंक्ति है – मारे गये दस जन / मरेंगे और भी…/ बज रहा जोरों से ढोल/ बज रहा जोरों से ढोल/ ढोल
… कौन हैं ये दस जन? मरेंगे और भी पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह दस जन नब्बे जनों अर्थात सवर्णों के पक्ष में बहुजनों के विरुद्ध एक रूपक है।

और यहाँ ‘रावण के माथे’ कविता (अपनी केवल धार) में पारम्परिक अर्थ में मिथकीय बिम्ब को लेते हुए अरुण कमल को देखिये,वे रावण की रूढ़ छवि को यहाँ स्वीकार करते दीखते हैं-
एक माथा दूसरे से
दूसरा तीसरे से
तीसरा चौथे से…सातवें से…दसवें से
भिड़ा-टकराया,
हर माथा अलग-अलग बोला
अलग-अलग मुँह फेर ताका
एक-दूसरे को डाँटा
दिशा-ज्ञान बाँटा
ज़रा भी चली हवा कि माथा
माथे से टकराया
लड़ा-झगड़ा
एक ही धड़ पर आँखें मटकाता ।

लेकिन अन्दर-अन्दर रावण के ये
दस-दस माथे
रहे सोचते एक ही बात
एक ढंग से एक ही बात
रावण के ये दस-दस माथे ।

एक चर्चित कवयित्री हैं अनामिका. मुजफ्फरपुर में पली-बढ़ी, अभी दिल्ली विश्विद्यालय के एक कॉलेज में अंग्रेजी प्राध्यापक. उनकी एक कविता है-‘एक नन्ही सी धोबिन (चिरैया)-
दुनिया के तुड़े-मुड़े सपनों पर, देखो-
कैसे वह चला रही है
लाल, गरम इस्तिरी!
जब इस शहर में नई आई थी-
लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
चुपचाप
सारे मुहल्ले में।
आती वह चार बजे
जब सूरज
हाथ बाँधकर
टेक लेता सर
अपनी जंगाई हुई सी
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
और धूप लगने लगती
एक इत्ता-सा फुँदना-
लड़की की लम्बी परांदी का।
कई बरस
हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-
उसके मतलब का
कोई शब्द नहीं मिला।
चुपचाप सोचती रही देर तक,
लगा उसे-
इस्तिरी का यह
अध सुलगा कोयला ही हो शायद
शब्द उसके काम का!
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
नम्बर कपडों के
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।
लेकर उजास और खुशबू
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
मजबूती पारे से
धार और विस्तार
अलगनी से
उसने
एक नई भाषा गढ़ी।
धो रही है
देखो कैसे लगन और जतन से
दुनिया के सब दाग-धब्बे।
इसके उस ठेले पर
पड़ी हुई गठरी है
पृथ्वी।
कविता पर नजर डाली आपने. एक धोबिन के दुःख को भी कितना ग्लैमराइज कर पेश किया है कवयित्री ने, लगता है जैसे यह काम एक स्वर्गिक आनंद को पाने जैसा हो.परम्परा से मिली वंचना को भी सुख जैसा बनना ही दलित विमर्श की धार को कुंद करने में मूसलचंदों का आ टपकना है. ऐसे ही तरकों से मानवाधिकारों से वंचना के कृत्य भी वन्दनीय लगने लगते हैं. दलित-आदिवासी वर्गों की बहुतेरी संस्कृति ऐसी ही हैं जिसके प्रति मुख्यधारा के समाज में प्रशंसा के भाव है. चर्चित दलित (आदिवासी) कवयित्री अपनी कविताओं में ऐसे ही भावों के लिए सराही जा रही हैं, जबकि यह सब चेतना को कुंद करने की बातें हैं,अधिकार वंचना से प्यार जताने जैसा है. बिहार सरकार के एक बड़े अधिकारी ने यहाँ की एक दलित जाति के पारंपरिक भोजन-चूहे को संरक्षित-संवर्धित करने की एक परियोजना ही बना डाली थी!

और क्यों न हम आलेख के अंत में मैथिली (अब एक संविधान स्वीकृत भाषा, रचना समय में हिंदी की एक बोली) के विद्यापति जैसे प्रभु एवं यशस्वी माने जाने वाले कवि की दलित रुचि की हम एक फौरी परीक्षा कर लें? बिहार के मिथिला क्षेत्र में हुए इस स्वनामधन्य कवि ने मूल रूप से शिव भक्ति में गीत रचे और राजाश्रय के प्रति अपने समर्पण भाव की अभिव्यक्ति करते हुए रस-रंग प्रिय पनाहदाता के इशारे पर अश्लील की हद तक जाकर शृंगारिक पद लिखे जिसका विवेचन यहाँ अभीष्ट नहीं है. यहाँ एक दलित प्रसंग की उनकी तुकमय कविता प्रस्तुत है जिसमें कोई दलित या दीन-हीन व्यक्ति अपने ब्राह्मण देवता से गिड़गिड़ाता हुआ बहुविध अर्जी लगा रहा है. इस भागता गीत का शीर्षक ‘ब्राह्मण’ है-

इनती करै छी हे ब्राह्मण मिनती करै छी
मिनती करै छी हे ब्राह्मण
कल जोरि करै छी परिणाम
धरम के दुअरिया हो ब्राह्मण
दाता दीनानाथ
कल जोरि करै छी परिणाम
अहर पंछ बीतलै हो ब्राह्मण
पहर पंथ बीतलै
ब्राह्मण छचिन्ह देबता
कल जोरि करै छी परिणाम
छप्पन कोरि देबता हो ब्राह्मण
धरम के दुअरिया
कल जोरि करै छी परिणाम
छप्पन कोरि देबता हो ब्राह्मण
रोकहि छी धरम के दुआरि
गाढ़ बिपत्ति परलै हो ब्राह्मण
बानहि घुमड लगतइ
कल जोरि करै छी परिणाम
अबला जानि खेलई छी हो ब्राह्मण
दाता दीनानाथ कल जोरी करै छी परिणाम
हँसइ खेलाबह हो ब्राह्मण, खैलालै चौपाड़ि
कल जोरि करै छी परिणाम
सुमिरन केलमै हो दाता दीनानाथ.

और, अब अंतकर टिप्पणी. हिन्दी का पारंपरिक पाठक, लेखक, आलोचक शायद सिर्फ उदात्त उदात्त ही सुनना चाहता है; लेकिन इससे क्या होता है? आप बैक एंड ह्वाइट में आइये. उदात्त को मलिन साबित करने वालों को कंट्राडिक्ट कीजिए, अब दलित साहित्य का प्रतिपक्ष सामने है जो आपकी सारी उदात्तताओं की परीक्षा में उतर चुका है, आपकी उदात्तताओं की शातिरी को बेनकाब कर रहा है.
…………………..
आलेखक :
डॉ मुसाफिर बैठा, बसंती निवास, प्रेम भवन के पीछे, दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा, पटना, पिन -800014
मोबाइल : 09835045947
ईमेल : musafirpatna@gmail.com

Language: Hindi
Tag: लेख
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जिन सपनों को पाने के लिए किसी के साथ छल करना पड़े वैसे सपने
Paras Nath Jha
गायब हुआ तिरंगा
गायब हुआ तिरंगा
आर एस आघात
दिल की गुज़ारिश
दिल की गुज़ारिश
सुरेन्द्र शर्मा 'शिव'
ना छीनो जिंदगी से जिंदगी को
ना छीनो जिंदगी से जिंदगी को
Vaishnavi Gupta (Vaishu)
कौन सुनेगा बात हमारी
कौन सुनेगा बात हमारी
Surinder blackpen
Ranjeet Kumar Shukla
Ranjeet Kumar Shukla
Ranjeet Kumar Shukla
ये संगम दिलों का इबादत हो जैसे
ये संगम दिलों का इबादत हो जैसे
VINOD CHAUHAN
No one in this world can break your confidence or heart unle
No one in this world can break your confidence or heart unle
Sukoon
महसूस खुद को
महसूस खुद को
Dr fauzia Naseem shad
नजरों को बचा लो जख्मों को छिपा लो,
नजरों को बचा लो जख्मों को छिपा लो,
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
बसंत (आगमन)
बसंत (आगमन)
Neeraj Agarwal
◆ कीजिए अमल आज से।
◆ कीजिए अमल आज से।
*Author प्रणय प्रभात*
पापियों के हाथ
पापियों के हाथ
हिमांशु बडोनी (दयानिधि)
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