मुझे हर वो बच्चा अच्छा लगता है जो अपनी मां की फ़िक्र करता है
मुझे हर वो बच्चा अच्छा लगता है
जो अपनी मां की फ़िक्र करता है ,
उसके गिरने से पहले
मां उसको संभाल लेती थी
उसकी भूख उससे पहले
वो जान लेती थी ,
वो भी अपनी मां के हाथों को
लड़खड़ाने से पहले थाम लेता है
उसकी प्लेट में जो कम है
उसको उसमें डाल देता है ,
मुझे हर वो बच्चा अच्छा लगता है
जो अपनी मां की फ़िक्र करता है ,
मां बचपन से जैसे उसको
अपने से ज़्यादा जान लेती है
बिना कुछ बोले उसकी
हर बात सुन लेती है ,
वो भी जब उसके माथे की लकीरों को
बड़े ही आराम से पढ़ लेता है
उसके दिनभर बोलने के बाद भी
उसकी अनकही बातें समझ लेता है ,
मुझे हर वो बच्चा अच्छा लगता है
जो अपनी मां की फ़िक्र करता है ,
ये नाल का जो रिश्ता है
शब्दों में कहां बंधा है
एक दूसरे की फ़िक्र में ही तो
संपूर्ण जीवन सधा है ,
उसकी धड़कन मैं सुनती थी
वो अब मेरी सुनता है
मैं नींद से उठ ना जाऊं
वो दरवाज़ा धीरे से खोलता है ,
मुझे हर वो बच्चा अच्छा लगता है
जो अपनी मां की फ़िक्र करता है ,
जिस नाल ने उसको
कोख के अंदर जीवित रखा था
दुनिया में आने के बाद
उसकी हिम्मत परखा था ,
उस नाल को अपनी फिक्र के ज़रिए
उसने फिर से जोड़ दिया है
मां ने उसको जीवन दिया था
अब उसने मां को जीवन दिया है ,
मुझे हर वो बच्चा अच्छा लगता है
जो अपनी मां की फ़िक्र करता है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )