मुझे मेरे गाँव पहुंचा देना
हे, सर्पिली रेल की पटरियों
मैं चल पड़ा हूँ
त्रस्त नंगे पांव
तेरे साथ
आशा है पहुंचा दोगी
सकुशल मेरे गाँव.
चलते-चलते थक जाऊं
तो निष्ठुर मत बनना
सदा के लिए
मेरी थकान
दूर मत करना.
तेरी आश है,
जो मेरे गाँव से होकर गुजरती है
यह भ्रम मत तोड़ना
बस, मेरे गाँव पठा देना.
मेरी वेदना को समझ
शहरों का दिल पथरीला होता है
जान गया हूँ,
आखिर कब तक ?
पत्थरों को तोड़ने का प्रयास करता,
‘भूख’ को मर्यादा में कबतक रखता ?
साहबों की लम्बी बातें-
‘भूख’ को भरोसे में कबतक रखतीं ?
शहर तो कागज़ों में सिमट गया है
मैं क्या जानूँ ?
हार्ड-कॉपी, साफ्ट-कॉपी का खेल.
कंक्रीटों पर राज करती
गाँव-शहर को जोड़ती
मेरी प्यारी
रेल की पटरियों
तेरा सृजन हमने ही किया है
मेरे श्रम का बोनस देना
बस, मेरे गाँव पहुंचा देना.
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– डॉ. सूर्यनारायण पाण्डेय
13 मई 2020