मुक्ति कैसे पाऊँ
मन भटकता किस तरह समझाऊँ मैं?
माँ!तुम्हारे द्वार कैसे आऊँ मैं?
भक्ति है न ज्ञान है न साधना
फिर भी करना चाहता आराधना
मन को यह संसार चाहे बाँधना
बंधनों से मुक्ति कैसे पाऊँ मैं?
माँ!तुम्हारे द्वार कैसे आऊँ मैं?
मोह मेघाच्छन निलय मानस मेरा
घन तिमिर में देख न पाता धरा
पंथ अगणित देख आता न समझ
किस दिशा पदकमल तेरे पाऊँ मैं?
माँ!तुम्हारे द्वार कैसे आऊँ मैं?
स्वार्थ चित में हृदय में संताप है
मन वचन कर्मो से होते पाप हैं
अब तो अम्बे बस यही इक आस है
नाम ले भव-जलाधि से तर जाऊँ मैं
माँ!तुम्हारे द्वार कैसे आऊँ मैं