मुक्ति (कविता)
ऐ मेरे पंछी!,
उड़ जा तू इस,
पिंजरे से ।
ऐ मेरे पथिक,
जा चला जा तू ,
इस किराये के मकान से,
. क्या रखा है यहाँ ?
जो रुका है तूें।
किस आशा से इधर ,
थमा है तू?
यहाँ तुझे कुछ भी,
मिलने वाला नहीं।
दुनिया में कोई तेरा,
क्या !
यह तुच्छ शरीर भी,
तेरा नहीं।
जा उड़ जा,
जा चला जा,
यहाँ तेरा कुछ भी,
तेरा अपना नहीं ।
और जो तेरा अपना नहीं,
उससे मोह कैसा !
कभी तो जाना ही होगा,
तुझे अपने स्वदेश।
इससे पहले के यह जगत,
तुझे भ्रमित कर देे।
तुझे तेरे मालिक से,
दूर कर दे।
तो उचित है यही,
की तू अभी चला जा।
जा चला जा ।