मुक्तक
बड़े ऎहतियत से दिल को अपने हमने समझाया था
यार को भूल जाने पे भी उसे मनुहार से मनाया था
स्वप्न से भिंगी आंख खुली तो था पेशानी पे बोसा
और चाॅंद मेरी खिड़की पे ही सर रख के सोया था
उंगलियों से चिपक कर रह गया था जो लम्स ए यार
उसी के नाम पे फिर दिल ने बड़ा बबाल मचाया था
हाय कितनी ही रातें मेरी आंखों के काजल में घुल के
चन्दन सरीखा याद में उसके बरबस ही महक आया था
~ सिद्धार्थ