मुक्तक त्रय
तप्त धरा शोषित मानव से धूप देह झुलसाती है।
फूट गए कृषकों के छाले बंजर भू अकुलाती है।
मूक वेदना सहती पृथ्वी रोम-रोम गहरी खाई-
हरिताभा को तरसे धरती मेघों को ललचाती है।
डरो नहींं तुम नागफनी के, देख कँटीले शूल।
घाव करे मन में ऐंठे ये, मिल जाएँगे धूल।
टिका नहीं है रावण का भी, इस जग में अभिमान।
भागीरथ बन कर्म करो तुम, त्याग-तपस्या मूल।।
तिमिर घनघोर जीवन में नहीं कोई बसेरा है।
जला अरमान की बस्ती मिला मुझको सवेरा है।
बनाकर कर्म को बाती किया रौशन ज़माने को-
मिटा हस्ती तले इस दीप ने पाया अँधेरा है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)