माॅंं ! तुम टूटना नहीं
माॅं तुम टूटना नहीं।
आज का मनुज, तुम्हारा बेटा
भूल चुका है-
सौंधी मिट्टी की महक,
चिड़ियों की प्यारी चहक,
रिश्तो की गर्माहट।
अहम के खोखलेपन में
अपने स्वत्व को समेट,
न जाने किस जुनून में
उस राह पर बढ़ रहा है ,
जहां है सिर्फ विनाश!
हाॅं माॅं!सिर्फ विनाश!!
माॅं! तुम टूटना नहीं।
ऑंखों पर छाया मद का नशा
उसे देखते ही नहीं देता-
तेरी ममता का आंचल,
स्नेह की पावन डोर ,
जिसके सहारे सहारे
बड़ी से बड़ी पीड़ा को
अनायास ही पी जाना।
हर बाधा को जीत
खुशी को जी जाना।
बहुत ही सरल है।
माॅं! बहुत ही सरल है।
माॅं! तुम टूटना नहीं।
इस समय
कोई की प्रयास निष्फल है ,
निरर्थक है माॅं!
क्योंकि वह कैद है-
अभिमान की उस मीनार में ,
जिसे समय ही ढहा सकता है।
गरम-गरम कोई लावा ही
अपने साथ पिघलाकर
दिल पर चढ़ी कठोर
पर्त को हटा सकता है।
हाॅं माॅं!हटा सकता है।
माॅं ! तुम टूटना नहीं।
तेरी आस्था की प्रतिध्वनि
ममता सागर की उद्वेलित लहरें
मुझे हर क्षण रोमांचित कर
भरती रहेगी एक विश्वास।
चाहे मैं रहूॅं या ना रहूॅं
कहेगी मेरी गूंजती हुई सांस-
माॅं की ममता अथाह है,
माॅं, माॅं ही होती है
बच्चों का कलुष धोती है।
बच्चों का व्यक्तित्व पखारने पौंछने में
बहुत कुछ झेलती है
पर माता, कुमाता नहीं होती।
माॅं तुम टूटना नहीं।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)