मानसून
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सूख रही थी परती परती।
तपन सहन धरा न करती,
मानसून की ताक में देखो,
बहुत बेचैन सी थी धरती।
दादुर ताके दुबक दुबक के,
पपीहा पिहके सुबक सुबक के।
मानसून की आस में ताके,
झूला ले प्रेयसी चभक चभक के।
तड़प देख मानसून सरसाया,
जलधर को भी पास बुलाया,
मही की प्यास बुझाने खातिर,
रिमझिम रिमझिम जल बर्साया।
मानसून की रिमझिम बूंदे
मोती जैसे तन पर कूदे।
सोंधी खुश्बू बिखेर देती,
मग्न हो धरा आंखें मूदे।
हरियाली होती चहुँ ओर,
बागों में मिलते चितचोर।
मानसून एक अगन बढ़ाये,
विरहन तड़पे शामों भोर।
पवन हिलोरे विह्वल करती,
डाली डाली आलिंगन भरती
मानसून से हिया जुड़ाकर,
धरा प्रेम रंग नभ में फैलाती।
अति हर्षित होते अन्नदाता,
धन्यवाद ! हे भाग्यविधाता।
खुशियाँ लेकर यह मानसून,
काश हर बार समय से आता।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर, उ.प्र ।
9838418787,6392278218
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