मानव हो मानवता धरो
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विचार ही विचित्र हो,
व्यवहार जो व्यथित करे,
बोल हो तो कर्कश ही,
सोच समझ से परे !
न रंग है न रूप है ,
न छांव है ना धूप है ,
न संग है ना साथ है,
ना ढंग की कोई बात है !
कौन जो अतिरेक द्वेष
पाल ह्रदय में जीते हैं
कैसा विभत्स क्रूर वेश
कैसे संवेदना से रीते हैं ।
रंग लहू का एक है ।
विधाता सबका नेक है ,
पर रोज़ समझ, विवेक है खोता
जमीर ,मानवता रोज़ ही रोता |