‘मानवता की ललकार’
तुम मरे तो भारतभूमि ने
सहर्ष तुम्हें स्वीकार किया ।
इहलोक से परमलोक तक
मानवता का नाम दिया।
हमें जिन्दा रहकर भी न
जीने का अधिकार दिया !
जिन्दा लाश हमें बनाया
न रत्ती भर आधार दिया ।
अपमानों की पराकाष्ठा,
दलित नहीं सह पाएगा ।
किया नाश निश्चित तुमने
ये रास नहीं अब आएगा ।
बहुत सह चुके छुआछूत
सहने की भी हद हो गई ।
सौगंध हमें बाबा साहब की
पंडिताई भी अब रद्द हो गई ।
कैसे समाज में रहे एकता
कैसे समानता बनी रहे ।
ढाए ज़ुल्म तुमने दलितों पर,
आखिर क्यों वह इन्हें सहे।
शिक्षा का अधिकार छीनकर,
दलित-जाहिल बना दिया ।
बामुश्किल अधिकार मिला,
तो हमने तुमको हिला दिया !
तभी आँखें जमी तुम्हारी,
आरक्षणी पतवार पर।
बना ज्ञानी-पंडित दलित क्यों,
छिड़कें नमक अब घाव पर !
घोड़ी से कभी उसे उतारा,
कभी लाश रस्सी पर ।
कभी थाथै नाच-नचाया
बन राजा ताश पत्ती पर।
न सह पाएँगे दुषत्याचार,
न हैं बेबस और लाचार।
कहे मयंक सुनो ज़ालिमों,
छोड़ो अनैतिक ओछेपन को।
अब भी अवसर है अपनालो,
समतामय जन-जन को ।
रचयिता : के. आर. परमाल ‘मयंक’