मानवता का मुखड़ा
काव्य सृजन–
शीर्षक—
मानवता का मुखड़ा–
संध्या का धुँधलका था रोने की आवाजें आ रही थी,
नजदीक जाकर देखा,आँसुओं से तर-बतर सूरत थी!
मैंने पूछा अरे बहन ऐसे क्यूँ रोती हो?
क्या गम है जो आँसू से मुख धोती हो?
गमगीन चेहरा जब उसनेे ऊपर उठाया,
देखा तो,मानवता का मुखड़ा बेहाल नजर आया!
टूटे दर्पण सा दिल का हाल सुबक कर सुनाया!!
क्या कहूँ बहना?–
मेरे देश में भेड़िये इंसानी सूरत में घूमते हैं
इंसान फितरती शक्ल कौमे जूनून में ढलते है!
कलियों की चीत्कारों से कर्णपुट दहलते नहीं है
चौराहे पे वीभत्स नरसंहार से पाँव ठिठकते नहीं हैं!
सदाचार व्यवहार आचार विचार बंदूकों में बंद हैं,
शुचि फिजाओं मे नक्सली सोच अजाब पसन्द हैं!
प्रेम प्रीति के रिश्तों पर क्रोध का ताला जड़ा है,
साम्प्रदायिक दंगे फसाद में अपनापन खोखला है
इंसानी रक्त में अहसास क्यूँ सफेद हो गया है?
मेरे देश की चंदन माटी में ये जहर कैसे घुल गया है?
चारित्रिक पतन के टन भर बोझ से लदी हूँ,
धीरे-धीरे मरते जमीर वाली आदी हो गयी हूँ!
हाय याद हैं मुझे वो सुहाने दिन–
मेरे भारत की मलयज माटी ने देश विदेश,
में विश्वगुरु का बिगुल बजाया था!
दयानंद शंकराचार्य विवेकानंद ने,
अनमोल प्रीति से गुलाब खिलाया था!
भारत की अक्षुण्ण संस्कृति में तब,
रक्त नस नाड़ी में रचे प्राणसंस्कारी थें
अहिल्या पन्ना धाय लक्ष्मीबाई जीजाबाई सी
माँओं के लाडले वीर जान हथेली पे रखते थे
परम पावन गुरूकुल में नौनिहाल,
परम्परा से पलते संवरते पढते थे!
दादा ताया काका के वात्सल्यमयी,
छाँव में घर के कुलदीपक बढ़ते थें!
*किंतु इंसानी लहू में अब प्रीत अहसास,
एक दूसरे के खून का प्यासा हो गया है!
भारत की परिमल केसर क्यारी में,
साम्प्रदायिकता का जहर जब से घुला है!
जहरीली हवाओं से मैं छटपटाती हूँ,
अधघुटी टूटती बेदम सी साँसे लेती हूँ!
बहना देखो, तो अब मैं यूँ ही बदहाल,
घुँट घुँट के जीने की आदी हो चुकी हूँ!
आत्मा पर लगे लहू के गहरे धब्बों से,
इंसानियत जगाने का प्रयास कर रही हूँ
इसीलिए आँसुओं की दुहाई दे धो रही हूँ,
अब मैं यूँ ही जीने की आदी हो गयी हूँ!
हाय मैं नवनीत सी सुकुमार मानवता
कटुता से हृदयों में दम तोड़ रही हूँ!*
✍ सीमा गर्ग मंजरी,
मौलिक सृजन,
मेरठ कैंट उत्तर प्रदेश।